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जैन दर्शन की तत्त्व-मीमांसा २३ । लक्षण है । जीव द्रव्य में चेतना गुण है, ज्ञान तथा दर्शन पर्याय हैं। पुद्गल द्रव्य में नील तथा पीत पर्याय हैं, रूप गुण की । अतएव गुण और पर्याय के आश्रय को द्रव्य कहते हैं । द्रव्य में सब गुण एक-जैसे नहीं होते । कुछ सामान्य हैं, तो कुछ विशेष भी हैं। जो गुण समस्त द्रव्यों में रहते हैं, वे सामान्य है, जैसे कि अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रदेशवत्व और ज्ञेयत्व आदि । कुछ विशेष होते हैं, जैसे कि जीव में चेतना और पुद्गल में रूप । असाधारण गुण और उसकी पर्याय के कारण ही प्रत्येक द्रव्य एक-दूसरे से भिन्न होते हैं। एक विशेष बात यह है, कि पुद्गल द्रव्य के मूर्त होने से उसके गुण गुरु-लघु तथा पर्याय भी गुरुलघु कहे जाते हैं । शेष समस्त द्रव्यों के अमूर्त होने से उनके गुण और पर्याय अगुरु-लघु कहे जाते हैं। गुण का स्वरूप : __जो सदा द्रव्य में तो रहते हैं, पर जो स्वयं गुण-शून्य हैं, वे गुण कहे जाते हैं । गुण कभी गुण में नहीं रहता। गुण के समान पर्याय भी द्रव्य के आश्रित हैं, और निर्गुण हैं, फिर वे उत्पाद-व्यय रूप होने से द्रव्य में सदा विद्यमान नहीं रहते। गुण ध्रुव रूप होने से सदा ही द्रव्य में उपलब्ध होते हैं । वस्तुतः यही अन्तर हैं, गुणों में और पर्यायों में । गुण में गुणान्तर मानने से अनवस्था दोष उपस्थित हो जाता है । पर्याय का स्वरूप :
___गुणों का परिणमन पर्याय है । गुणों का विकार पर्याय है । वाचक प्रवर उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र के पञ्चम अध्याय के इकतालीसवें सूत्र में, पर्याय के स्वरूप का प्रतिपादन इस प्रकार किया है, कि उसका होना, अर्थात् स्वरूप में स्थित रहकर, उत्पन्न एवं नष्ट होते रहना, यह परिणाम है, यह पर्याय है । द्रव्य हो अथवा गुण हो, सभी अपनी-अपनी जाति का बिना परित्याग किए प्रतिसमय निमित्त के अनुसार भिन्न-भिन्न अवस्थाओं को प्राप्त होते रहते हैं । यही द्रव्यों तथा गुणों का परिणाम है ।
परिणाम दो प्रकार का होता है-अनादिमान और आदिमान् । जीवों में योग और उपयोग आदिमान होते हैं। द्रव्य रूपी हो किंवा अरूपी, समस्त द्रव्यों में अनादि और आदि, दोनों प्रकार के परिणाम उपलब्ध होते हैं। प्रवाह की अपेक्षा अनादि और व्यक्ति की अपेक्षा आदि परिणाम सब में समान रूप से घटाया जा सकता है। जैन तत्व-मीमांसा का मूल आधार है-द्रव्य, गुण एवं पर्याय ।
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