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________________ २२ अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय दृष्टि से सिद्ध अनित्यत्व विवक्षित न होने से गौण है, अप्रधान है । परन्तु कर्तृत्व की अपेक्षा भोक्तृत्व काल में आत्मा की अवस्था बदल जाती है। इस स्थिति में कर्मकालीन और फलकालीन अवस्था भेद दिखाने के लिए जब पर्याय दृष्टि सिद्ध अनित्यत्व का प्रतिपादन किया जाता है, तब द्रव्यदृष्टि सिद्ध नित्यत्व प्रधान नहीं रहा, वह गौण हो गया । अतः विवक्षा और अविवक्षा के कारण कभी आत्मा को नित्य और कभी अनित्य कहा जाता है । जब दोनों धर्मों को विवक्षा एक साथ की जाती है, तब दोनों धर्मों का युगपत् प्रतिपादन कर सके, इस प्रकार का वाचक शब्द न होने के कारण आत्मा को अवक्तव्य कहा जाता है । सप्त भंगी : विवक्षा, अविवक्षा और सह विवक्षा को लेकर, अन्य भी चार वाक्य बच जाते हैं । जैसे कि -- १. नित्यानित्य २. नित्य अवक्तव्य ३. अनित्य अवक्तव्य ४. नित्य अनित्य अवक्तव्य इन सात वाक्य रचनाओं को सप्त भंगी कहते हैं । मूल में दो भंग हैं नित्य और अनित्य । शेष इनका सम्मिश्रण है । द्रव्य का लक्षण : जिसमें गुण और पर्याय हों, वह द्रव्य कहलाता है । प्रत्येक द्रव्य अपने परिणामी स्वभाव के कारण समय-समय में निमित्त के अनुसार भिन्नभिन्न रूपों में परिणत होता रहता है, विविध परिणामों को प्राप्त करता रहता है । द्रव्य में परिणाम उत्पन्न करने की जो शक्ति है, वही उसका गुण कहा जाता है, और गुणजन्य परिणाम को पर्याय कहते हैं । गुण है, कारण और पर्याय है, उसका कार्य । एक द्रव्य में अनन्त गुण हैं, जो अपने आश्रय भूत द्रव्य से अविभाज्य हैं । जीव और पुद्गल द्रव्य हैं, क्योंकि उनमें अनन्त गुण हैं । चेतना जीव का विशेष गुण है, और रूप पुद्गल का विशेष गुण है । द्रव्य के विशेष गुण को असाधारण धर्म कहते हैं, यह असाधारण धर्म ही लक्षण कहा जाता है। उपयोग एवं चेतना जीव द्रव्य का लक्षण है । रूप एवं मूर्ति पुद्गल द्रव्य का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001339
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1992
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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