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________________ १० अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय भारतीय दर्शनों में कर्म-वाद : कर्मवाद यह भारतीय-दर्शन का एक विशिष्ट सिद्धान्त माना जाता है। भारत के प्रत्येक दर्शन की शाखा ने इस कर्मवाद के सिद्धान्त पर भी गम्भीर विचार किया है। जीवन में जो सुख और दुःख की अनुभूति होती है, उसका कोई आधार अवश्य होना चाहिए । इसका आधार एकमात्र कर्मवाद ही हो सकता है । इस संसार में जो विचित्रता और विविधता का दर्शन होता है, उसका आधार प्रत्येक व्यक्ति का अपना कर्म ही होता है । कर्मवाद के सम्बन्ध में जितना गम्भीर और विस्तृत विवेचन जैन-परम्परा के ग्रन्थों में उपलब्ध है, उतना अन्यत्र उपलब्ध नहीं है। एक चार्वाक-दर्शन को छोड़ कर शेष सभी भारतीय-दर्शन कर्मवाद के नियम में आस्था एवं विश्वास रखते हैं। कर्म का नियम नैतिकता के क्षेत्र में काम करने वाला कारण नियम ही है। इसका अर्थ यह है, कि शुभ कर्म का फल अनिवार्यतः सुख होता है, और अशुभ कर्म का फल अनिवार्यतः अशुभ होता है । अच्छा काम आत्मा में पुण्य उत्पन्न करता है, जो कि सुखभोग का कारण बनता है। बुरा काम आत्मा में पाप उत्पन्न करता है, जो कि दुःख भोग का कारण बनता है। सुख और दुःख क्रम से शुभ और अशुभ कर्मों के अनिवार्य फल हैं। इस नैतिक नियम की पकड़ से कोई भी छूट नहीं सकता । शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के कर्म सूक्ष्म संस्कार छोड़ जाते हैं, जो निश्चय ही भावी सुख-दुःख के कारण बनते हैं । वे अवश्य ही समय आने पर अपने फल को उत्पन्न करते हैं। इन फलों का भोग इस जन्म में अथवा भविष्य में किया जाता है, अथवा आगामी जन्मों में किया जाता है। कर्म के नियम के कारण ही आत्मा को इस संसार में जन्म और मरण करना पड़ता है । जन्म और मरण का कारण कर्म ही है। कर्म के नियम का बीज-रूप सर्वप्रथम ऋग्वेद की ऋत की धारणा में उपलब्ध होता है। ऋत का अर्थ है जगत की व्यवस्था एवं नियम । प्रकृति की प्रत्येक घटना अपने नियम के अनुसार ही होती है। प्रकृति के ये नियम ही ऋत हैं। आगे चलकर ऋत की धारणा में मनुष्य के नैतिक नियमों की व्यवस्था का भी समावेश हो गया था। उपनिषदों में भी इस प्रकार के विचार हमें बीजरूप में अथवा सूक्षरूप में उपलब्ध होते हैं। कुछ उपनिषदों में तो कर्म के नियम की भौतिक नियम के रूप में स्पष्ट धारणा की है। मनुष्य जैसा बोता है, वैसा ही काटता है, अच्छे बुरे कर्मों का फल अच्छे बुरे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001339
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1992
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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