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भारतीय दर्शन के सामान्य सिद्धान्त ६ लित रहा है। सांख्य-दर्शन में प्रारम्भ में ही इस तथ्य को स्वीकार किया गया है कि तीन प्रकार के दुःख से व्याकुल यह आत्मा सुख और शान्ति की खोज करना चाहता है। इस प्रकार भारतीय-दर्शनों में दुःखवादी विचारधारा रही है, इस सत्य से इन्कार नहीं किया जा सकता । परन्तु उसका अर्थ निराशावाद और पलायनवाद नहीं किया जा सकता। एकमात्र सुख का अनुसन्धान ही उसका मुख्य उद्देश्य रहा है । भारतीय दर्शनों में आत्मवाद :
भारत के सभी दर्शन आत्मा के अस्तित्व में विश्वास करते हैं । न्याय और वैशेषिक आत्मा को एक अविनश्वर और नित्य पदार्थ मानते हैं । इच्छा, द्वष, प्रयत्न, सुख, दुःख और ज्ञान को उसके विशेष गुण मानते हैं। आत्मा ज्ञानवान्, कर्ता और भोक्ता है । ज्ञान, अनुभूति और संकल्प आत्मा के धर्म है । चैतन्य आत्मा का स्वरूप है । मीमांसा-दर्शन का भी मत यही है। मीमांसा आत्मा को नित्य और ज्ञानवान् मानतो है। चैतन्य को उसका अखण्ड धर्म मानती है। स्वप्नरहित निद्रा की तथा मोक्ष की अवस्था में आत्मा चैतन्य गुण से रहित होता है। सांख्य-दर्शन में पुरुष को नित्य और मुक्त तथा चैतन्य स्वरूप माना गया है। इस दर्शन के अनुसार चैतन्य आत्मा का आगन्तुक धर्म नहीं है। पुरुष अकर्ता है। वह सुख-दुख की अनुभूतियों से रहित है । बुद्धि कर्ता है, और सुख एवं दुःख के गुणों से युक्त है। बुद्धि प्रकृति का परिणाम है, और प्रकृति निरन्तर क्रियाशील है। इसके विपरीत पुरुष शुद्ध चैतन्य स्वरूप है। अद्वैत वेदान्त आत्मा को विशुद्ध सत्, चित् और आनन्दस्वरूप मानता है । सांख्य अनेक पुरुषों को मानता है, लेकिन ईश्वर को नहीं मानता । अद्वैत वेदान्त केवल एक ही आत्मा को सत्य मानता है। चार्वाक दर्शन आत्मा की सत्ता को नहीं मानता। वह चैतन्य विशिष्ट शरीर को ही आत्मा कहता है । बौद्ध दर्शन आत्मा को ज्ञान, अनुभूति और संकल्पों की एक क्षण में परिवर्तन होने वाली सन्तान मानता है। इसके विपरीत जैन-दर्शन आत्मा को नित्य, अजर और अमर स्वीकार करता है। ज्ञान आत्मा का विशिष्ट गुण है। गुण और गुणी में कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद रहता है। जैन-दर्शन मानता है, कि आत्मा स्वभावतः अनन्त-ज्ञान, अनन्त-दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त-शक्ति से युक्त है । इस दृष्टि से प्रत्येक भारतीय दर्शन आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करता है और उसकी व्याख्या अपने-अपने ढंग से करता है।
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