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________________ भारतीय दर्शन के सामान्य सिद्धान्त ११ रूप में मिलता है । शुभ कर्मों से अच्छा चरित्र बनता है, और अशुभ कर्मों से बुरा । फिर अच्छे चरित्र से अच्छा जन्म मिलता है, और बुरे चरित्र से बुरा। उपनिषदों में कहा गया है, कि मनुष्य शुभ कर्म करने से धार्मिक बनता है, और अशुभ कर्म करने से पापात्मा बनता है। संसार जन्म और मृत्यु का एक अनन्त चक्र है । मनुष्य अच्छे काम करके अच्छा जन्म पा सकता है, और अन्त में भेद विज्ञान के द्वारा संसार से मुक्त भी हो सकता है । जैनआगम और बौद्ध-पिटकों में भी कर्मवाद के शाश्वत नियमों को स्वीकार किया गया है । जैन-परम्परा कम से कम ऋग्वेद से पूर्व भो न हो, तो उसके समकालीन अवश्य रही है। उसमें भगवान ऋषभदेव के युग से ही कर्मवाद की मान्यता रही है। बौद्ध-दर्शन में भी कर्मवाद की मान्यता स्पष्ट रूप में नजर आती है । अतः बौद्ध-दर्शन भी कर्मवादी दर्शन रहा है । न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग तथा मीमांसा और वेदान्त दर्शन में कर्म के नियम में आस्था व्यक्त की गई है। इन दर्शनों का विश्वास है कि अच्छे अथवा बुरे काम अदृष्ट को उत्पन्न करते हैं, जिसका विपाक होने में कुछ समय लगता है, उसके बाद उस व्यक्ति को सुख अथवा दुःख भोगना पड़ता है। कर्म का फल कुछ तो इसी जीवन में मिलता है, और कुछ अगले जीवन में। लेकिन कर्म के फल से कभी बचा नहीं जा सकता। भौतिक व्यवस्था पर कारण नियम का शासन है और नैतिक व्यवस्था पर कर्म के नियम का शासन रहता है । परन्तु भौतिक व्यवस्था भी नैतिक व्यवस्था के ही उद्देश्य की पूर्ति करती है। इस प्रकार यह देखा जाता है, कि भारतीय दर्शनों की प्रत्येक शाखा ने कर्मवाद के नियमों को स्वीकार किया है, और उसको परिभाषा एवं व्याख्या भी अपनी-अपनी पद्धति से की है। भारतीय दर्शनों में परलोक-वाद : __जब भारतीय-दर्शनों में आत्मा को अमर मान लिया गया, और संसारी अवस्था में उसमें सुख एवं दुःख मान लिया गया, तब यह आवश्यक हो जाता है, कि सुख एवं दुःख का मूल आधार भी माना जाए। और वह मूल आधार कर्मवाद के रूप में भारतीय-दर्शन ने स्वीकार किया। वर्तमान जीवन में आत्मा किस रूप में रहता है ? और उसकी स्थिति क्या होती है ? इस समस्या में से ही परलोकवाद का जन्म हुआ। परलोकवाद को जन्मान्तरवाद भी कहा जाता है । एक चार्वाक-दर्शन को छोड़कर शेष सभी भारतीय दर्शनों का परलोकवाद-यह एक सर्वमान्य सिद्धान्त है । परलोक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001339
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1992
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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