SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 163
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५४ अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय इन विरोधों को दूर कर, उनमें सामञ्जस्य स्थापित करना। दर्शन को सफलता और उन्नति मनुष्य के विकास और उसकी बुद्धि की स्वच्छता एवं समन्वयात्मक दृष्टिकोण अपनाने की क्षमता पर निर्भर करती है । जैसा कि भारतीय दर्शनों में जैन दर्शन ने समन्वयात्मक दृष्टिकोण अपनाया और दर्शन के क्षेत्र में नित्यवाद एवं अनित्यवाद, सत्वाद एवं असत्वाद, जैसे विरोधी सिद्धान्तों का समन्वय करने का सफल प्रयास किया है। ५ कुछ लोग दर्शन की उपयोगिता को केवल इस बात से आंकने का प्रयत्न करते हैं, कि इसने ज्ञान के क्षेत्र में कितनी समस्याओं का समाधान किया है, और क्या-क्या निर्णय किए हैं । परन्तु यह कसोटी केवल इस बात की कसौटी है, कि मनुष्य ने ज्ञान के क्षेत्र में कितनी उन्नति की है और अपने मानसिक विकास की कौन-सी सीढ़ी तक पहुंचा है। दर्शन मुख्य रूप से एक क्रिया है, एक पद्धति है। उसका फल इस बात पर निर्भर करता है कि हम इस क्रिया और पद्धति का कितना सही-सही प्रयोग करते हैं। यदि फल कुछ सन्तोषजनक नहीं भी है, तो इसमें दोष हमारा है, न कि दर्शन का। ६. जोड़ का कहना है कि दर्शन की महत्ता का कारण वह प्रश्न हैं, जिन्हें दार्शनिक उठाता है, और उनको हल करने की पद्धति जिसे वह अपनाता है, न कि उनके उत्तर जो वह दे पाता है। उन प्रश्नों को उठा कर दर्शन अन्धविश्वास के अन्धकार को विदीर्ण करता है और निरुद्देश्य सत्यानुसन्धान का मार्ग प्रशस्त करता है । पक्षपात रहित निरुद्देश्य सत्यानुसंधान उसके हृदय और मस्तिष्क को उदार बनाता है। उसके अन्दर विपक्षियों के मत को सुनने और समझने तथा उस पर निष्पक्षता से विचार करने की क्षमता प्रदान करता है । इसलिए दर्शनशास्त्र के प्रश्न और पद्धति अपने आप में दर्शन की एक बहुत बड़ी देन है। दर्शन का क्षेत्र अत्यन्त महत्त्व पूर्ण है। इस प्रकार के प्रश्न क्यों उपस्थित होते हैं, इसका एकमात्र कारण 1 It is for the sake of questions themselves, which philosophy studies, and of the methods with which it pursues them, rather than for any set of answers that it propounds, that philosophy is to be values.-Return to Philosophy, p. 215. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001339
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1992
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy