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________________ पाश्चात्य दर्शन की पृष्ठभूमि १५३ होता है । एक दार्शनिक व्यक्ति जितनी शुद्ध दार्शनिक रीति से दार्शनिक विषयों पर विचार करता है, वह उतना ही अपने विचारों का सामंजस्य एवं दूसरे विचारों के साथ समन्वय स्थापित कर सकता है । २. वैज्ञानिक भी साधारण विषयों पर एकमत होते हुए, उन विषयों पर सहमत नहीं होते, जो पदार्थों के अन्तिम स्वरूप से सम्बन्ध रखते हैं, और परीक्षण एवं प्रयोग की पहुँच के बाहर हैं । जोड महोदय का कहना है कि आजकल भौतिक शास्त्र जड़ जगत के सात्त्विक स्वरूप और गठन के सम्बन्ध में हमारे सन्मुख प्रति दस वर्ष पर एक नया मत प्रस्तुत कर रहा है और जीव-विज्ञान में अब भी जीवन के स्वरूप और विकास के सम्बन्ध कोई एकमत निश्चित नहीं हो पाया है। जोड़ का मत यथार्थ प्रतीत होता है । ३. हम पहले ही कह चुके हैं कि दर्शन का इतिहास सत्य के शोध के क्षेत्र में विचार सम्बन्धी विविध प्रकार के प्रयोगों का इतिहास है । इस इतिहास के मध्य में जो प्रयोग असफल हुए, उन्हें दर्शन ने त्याग दिया । कुछ प्रयोग अब भी जारी हैं, और कुछ सफल मान लिए गए हैं। यह बात नहीं है कि दर्शन किसी भी महत्त्वपूर्ण समस्या पर किसी निर्णय पर न पहुँच सका हो । कुछ समस्याएं इस प्रकार की हैं, जिन पर प्रायः सभी दार्शनिकों का एकमत है । म्योरहेड का कहना है, कि इस सिद्धान्त पर सभी दार्शनिक एकमत हैं कि, प्रत्येक वस्तु का प्रत्येक वस्तु से कुछ न कुछ सम्बन्ध है और किसी भी वस्तु को अन्य वस्तुओं से सर्वथा अलग नहीं किया जा सकता । इसी प्रकार एकवाद और अनेक वाद के स्थान पर एकानेकवाद (multi pleausim) का सिद्धान्त प्रायः सभी दार्शनिकों को मान्य है । इस पर सब एकमत हैं । ४. दर्शन का सम्बन्ध सत्य से है । सत्य अनन्त और पूर्ण समन्वयात्मक है । सत्य का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के लिए एक समन्वयात्मक दृष्टि की आवश्यकता है | मनुष्य की बुद्धि अल्प और दृष्टिकोण सीमित है, इस - लिए पूर्ण रूप से समन्वयात्मक दृष्टिकोण साधारण मनुष्य में सम्भव नहीं है । इस अवस्था में सत्य के सम्बन्ध में हमारे मतों का एकांगी होना स्वाभाविक भी है । यह मत अपने स्थान पर सत्य होते हुए भी इसलिए एक-दूसरे के विरोधी हों, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं । परन्तु दर्शन का उद्देश्य है, Return to Philosophy, P. 212-goad १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001339
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1992
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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