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________________ १५२ अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय क्रियात्मक रूप देना, इतना विशाल क्षेत्र दर्शन का माना गया है। कुछ लोग दर्शन को अनुपयोगी इसलिए ठहराते हैं, कि दार्शनिक किसी भी विषय पर एकमत अथवा सहमत नहीं हो पाते, जबकि वैज्ञानिकों का अपने क्षेत्र के अनेक विषयों पर एक ही मत होता है। जैसे गणित का सिद्धान्त है, कि दो और दो मिलकर चार ही होते हैं। कम या अधिक होने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। हाईड्रोजन और आक्सीजन को किस मात्रा में मिलाने से पानी बनता है, मलेरिया बुखार का क्या कारण है, इन प्रश्नों पर वैज्ञानिकों का एक ही मत है। इस प्रकार वैज्ञानिक क्षेत्र में सबका एक ही सार निकलता है, जबकि दार्शनिक आत्मा का क्या स्वरूप है ? परमात्मा का क्या स्वरूप है ? आत्मा अमर है अथवा नहीं ? ईश्वर का अस्तित्व है कि नहीं? जगत का वास्तविक स्वरूप और कारण क्या है ? इन सभी प्रश्नों पर एक ही युगों के दार्शनिकों का विभिन्न मत होता है। निश्चय ही दर्शन के विरुद्ध यह आक्षेप कुछ सीमा तक सत्य हो सकता है, परन्तु दार्शनिक एकमत अथवा सहमत होते ही नहीं, यह कथन सर्वथा भ्रान्त है। जगत जड़ है, आत्मा चेतन है, जन्म एवं मरण होता है, इन तथ्यों को लेकर दार्शनिकों में किसी भी प्रकार का मतभेद नहीं है। आत्मा की अमरता का प्रतिपादन जैसा जैन दर्शन में, वैदिक दर्शन में किया गया है, उसी प्रकार का प्रतिपादन हमें यूनान के दार्शनिक पाइथा गौरस में और प्लेटो में देखने को मिलता है। योरूप के दार्शनिकों में भी डेकार्ट आत्मा की अमरता में विश्वास करता है। काण्ट और हेगेल जैसे जर्मनी के प्रसिद्ध दार्शनिक भी इस तथ्य को मानने से इन्कार नहीं करते, फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि दार्शनिक किसी विषय पर एकमत अथवा सहमत नहीं हो पाते । दर्शन शास्त्र के सम्बन्ध में यहाँ छह सिद्धान्तों पर विचार करना आवश्यक है, जिससे पता चलेगा कि दर्शन आत्मा का क्षेत्र और लक्ष्य क्या है १. दर्शन के विषय साधारण तौर से अनुभव से परे हैं। हमें केवल बुद्धि का सहारा लेकर उनके सम्बन्ध में कुछ निर्णय करना पड़ता है। बुद्धि प्रायः हमारे पूर्व संचित संस्कारों से दूषित रहती है, अतः हमारे निर्णय हमारे भिन्न-भिन्न संस्कारों के अनुकूल अलग-अलग होते हैं, इसलिए यदि दार्शनिक विषयों पर हमारा एकमत नहीं होता, तो इसका दोष हमारी दूषित बुद्धि को हैं, न कि दर्शन को। जो दर्शन जितना निष्पक्ष, शुद्ध एवं तर्कसंगत विचार का परिणाम होता है, वह उतना ही उत्कृष्ट एवं सत्य के निकट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001339
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1992
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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