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________________ पाश्चात्य दर्शन की पृष्ठभूमि १.५५ 1 यह है कि पाश्चात्य दर्शन अपने मध्यकाल से ही विज्ञान से अभिभूत होता रहा है । आज भी वहाँ का विज्ञान वहाँ के दर्शनशास्त्र पर हावी है । मध्य काल में कुछ दार्शनिक योरुप में इस प्रकार के भी हुए, जिन्हें दार्शनिक कहने में संकोच होता है । वे दार्शनिक की अपेक्षा वैज्ञानिक अथवा राजनैतिक ही अधिक थे । राजनीति में सक्रिय भाग लेना, वहां के दार्शनिक शायद अपना कर्त्तव्य मानते रहे थे । यही स्थिति विज्ञान के सम्बन्ध में भी है । वहाँ के दार्शनिक दर्शन की अपेक्षा विज्ञान से अधिक प्रभावित रहे हैं । अतः विज्ञान की वकालत करना उनका एक स्वभाव - सा बन गया था। इसके विपरीत भारतीय दार्शनिक प्रारम्भ से ही दार्शनिक रहे हैं। यहां पर दार्शनिकों की एक लम्बी परम्परा रही है । मतभेद होना दर्शन का दोष नहीं है । किन्तु उन मतभेदों में समन्वय स्थापित न हो सकना, अथवा एक दिशा की ओर प्रगति न करना, अवश्य ही दोष कहा जा सकता है। भारतीय दर्शनों में कितना भी मतभेद रहा हो, किन्तु उनकी प्रगति एक ही दिशा की ओर रही है, और समन्वय भी होता रहा है । दर्शन को सीमा रेखा : यह प्रश्न अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है कि दर्शन की सीमा रेखा क्या है ? वैसे दर्शन की कोई सीमा नहीं है । क्योंकि दर्शन अनन्त सत्य का प्रतिपादन करने वाला शास्त्र है । फिर भी उसके चिन्तन की सीमा के सम्बन्ध में हमें अवश्य ही विचार करना होगा । दर्शन का विषय ( Scope of Philosophy) वास्तव में यही है कि जगत, जीवन और ईश्वर के सम्बन्ध में विचारों का प्रतिपादन करना । दर्शन की उत्पत्ति के सम्बन्ध में यह कहा जाता है कि उसने पहले जगत का ही विचार किया था, आत्मा और ईश्वर का विचार उसमें बाद में आया । यदि इस अभिप्राय को हम स्वीकार भी कर लें, तब भी किसी प्रकार की आपत्ति नहीं हो सकती । इससे दर्शनशास्त्र के विकास की प्रक्रिया ही हमारे ध्यान में आती है । परन्तु विश्व में अनेक दार्शनिक परम्पराएँ इस प्रकार की रही हैं जिनमें प्रारम्भ से ही जगत, जीव और ईश्वर का चिन्तन रहा है । यह स्पष्ट है कि दर्शन का उद्देश्य जीवन और विश्व का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करना है । इसलिए दर्शन का विषय इतना व्यापक है कि उसकी कोई सीमा निर्धारित नहीं की जा सकती । प्रत्येक विज्ञान का एक सीमित क्षेत्र होता है, जिसके विषय में वह विशेष ज्ञान १ पाश्चात्य दर्शन दर्पण, प. ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001339
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1992
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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