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________________ पाश्चात्य दर्शन को पृष्ठभूमि १४३ शास्त्र के क्षेत्र में उसका मूल्य नहीं होगा। यदि वह अपने मत के समर्थन में तकं प्रस्तुत करता है और अपनी बात को युक्तियुक्त सिद्ध करने की क्षमता रखता है, तब निश्चय ही वह उसके विचार का अच्छा परिणाम है और इस अर्थ में वह एक प्रकार से दर्शन शास्त्र की ही अभिव्यक्ति करता है। इस प्रकार आदर्श और व्यवहार को लेकर पाश्चात्य दर्शन के क्षेत्र में अनेक प्रकार के विवाद समय-समय पर प्रस्तुत हुए हैं, और परस्पर उनमें खण्डन और मण्डन की पद्धति भी प्रचलित रही है। इस विषमता को दूर करने का एक ही उपाय हो सकता है, और वह यह है, कि दोनों में समन्वय स्थापित हो । तत्व और दर्शन: क्या तत्त्व और दर्शन का एक ही अर्थ है ? अथवा भिन्न-भिन्न अर्थ है ? सामान्य लोग भले ही तत्त्व और दर्शन का एक अर्थ समझें, परन्तु विचारक व्यक्ति के लिए कभी उनका एक अर्थ नहीं हो सकता । फिर भी इतना तो सत्य हो है कि जहां दर्शन होता है, वहाँ तत्त्व की उपस्थिति होती ही है । और जहां तत्त्व होगा, वहाँ दर्शन भी अवश्य ही रहेगा। पाश्चात्य दर्शन में दर्शन शास्त्र के लिए (Philosophy) शब्द का प्रयोग किया जाता है, परन्तु वास्तव में (Philosophy) और दर्शन में भी बड़ा अन्तर है । फिलोसोफी का अर्थ होता है, विद्या का अनुराग । परन्तु दर्शन शब्द का अर्थ होता है, सत्य का साक्षात्कार । अतः दर्शन-शास्त्र इतना व्यापक है कि उसकी परिधि में सभी प्रकार के सत्य, सभी देशों के सत्य और सभी कालों के सत्य समाहित हो जाते हैं । तत्त्व शब्द का अर्थ वस्तु का मूल स्वरूप होता है। एक कवि ने तत्त्व पद का संक्षेप में अर्थ-निर्देश करते हुए कहा है-तत्त्वं ब्रह्मणि याथायें। तत्त्व का अर्थ ब्रह्म और वस्तु का यथार्थ रूप होता है। तत्त्व शब्द अनेक स्थानों में और भिन्नभिन्न प्रसंगों पर विविध अर्थों में प्रयुक्त देखा जाता है। परन्तु उक्त दोनों अर्थों में इन नए अर्थों की छाया का संग्रह हो जाता है। यहां ब्रह्म का अर्थ मूल कारण लें और यथार्थता का भाव किसी भी वस्तु या घटना की यथावत् स्थिति-मूल के साथ संवाद स्थिति लें तो फिर शेष दूसरे अर्थों का भाव समझना सत्य हो जाएगा । तत्त्व अर्थ के मूल कारण एवं यथार्थता इस प्रकार जो दो अर्थ फलित हुए हैं, वे मानवी जिज्ञासा का सुझाव, गति १ पाश्चात्य दर्शन दर्पण, पृ. ११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001339
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1992
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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