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________________ १४२ अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय के भ्रान्तिपूर्ण विचार भी प्रचलित हैं, जिनके कारण कुछ अनभिज्ञ लोगों को इसकी प्रयोजन-शीलता के सम्बन्ध में सन्देह हो जाता हो, यह स्वाभाविक है । क्योंकि कुछ लोगों की धारणा है, कि दर्शन एक कल्पना अथवा मानसिक कलाबाजी मात्र है । जीवन से इसका कोई सम्बन्ध नहीं। इसके द्वारा हमारे व्यावहारिक जीवन की कोई समस्या का समाधान नहीं मिलता। इसका स्पष्ट अर्थ है-न इससे उदर पूर्ति होती है, और न जेब पूर्ति । यह धारणा उन लोगों की है, जिनका दृष्टिकोण अत्यन्त संकीर्ण रहा है। इनके विचार में खाना-कमाना ही जीवन का सार है । दर्शन खाने कमाने की समस्या का समाधान अवश्य नहीं करता, और इसलिए इनकी समझ में दर्शन का कुछ भी प्रयोजन नहीं हो सकता । अथवा हमारे व्यवहार में उसका कुछ भी अर्थ नहीं हो सकता। परन्तु रोजी और रोटी ही इन्सानी जिन्दगी का मकसद नहीं है । और न रोजो एवं रोटी से मनुष्य के आन्तरिक जीवन की परिपुष्टि ही होती है। मनुष्य स्वभावतः ही अपने वर्तमान जीवन से असन्तुष्ट रहता है । क्योंकि वह जो कुछ है और जितना है उससे अधिक होना चाहता है। अतः वह उन आदर्शों की खोज करता है और उसका जीवन उन आदर्शों को प्राप्त करने का प्रयास करता है, जिनके द्वारा वह अपने जीवन को अधिक उच्च बना सके । वास्तव में दर्शन शास्त्र आदों की खोज में मनुष्य की सहायता करता है। एक पाश्चात्य विद्वान ने कहा -Philosophy looks not only at what man is at presenttime at what he may in the future, Philosophy is the criticism of life. दर्शनशास्त्र यह नहीं देखता, कि मनुष्य का वर्तमान कालिक रूप क्या है, बल्कि वह यह कहता है, कि मनुष्य को भविष्य में कैसा बनना है। क्योंकि दर्शन का अर्थ जीवन की समालोचना है । जब कि दर्शन जीवन की समालोचना है, तब निश्चय ही दर्शन का उपयोग एवं प्रयोग जीवन के लिए ही किया गया है । यही दर्शन शास्त्र का व्यवहारवाद है । इसके विपरीत आदर्शवाद की मान्यता यह है, कि आदर्श जितने ऊँचे होते हैं, उतने ही सूक्ष्म और वर्तमान जीवन से दूर होते हैं । अतः सामान्य मनुष्यों को दर्शन भी मनुष्य के व्यावहारिक जीवन से दूर उसकी अद्भुत कल्पना मात्र प्रतीत होता है। साधारण मनुष्य सामान्य सांसारिक सुख-भोग को ही प्रयोजन मानकर जब दर्शन शास्त्र और उसके ऊंचे आदर्शों को अर्थहीन बतलाया है, तब वह अपने मन के समर्थन में कुछ तर्क भी प्रस्तुत किया करता है। यदि वह अपने विचार में कोई तर्क प्रस्तुत नहीं कर सकता, तब निश्चय ही दर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001339
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1992
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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