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________________ १३२ अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय जिज्ञासा है, उसी में से दर्शन-शास्त्र की उत्पत्ति होती है। मैं कौन है ? और यह जगत क्या है ? यह जिज्ञासा ही दर्शन-शास्त्र को जन्म देती है। क्योंकि मनुष्य को अपने स्वरूप को जानने की एक प्रबल जिज्ञासा रहती है। जीवन और जगत के रहस्य को जानने की उस में एक प्रबल उत्कण्ठा है। उस जिज्ञासा एवं उत्कण्ठा को शान्त करने के लिए जब मनुष्य अपने अन्तर मन में चिन्तन-रूप प्रयत्न करता है, तब सहज ही दर्शन उसके जीवन में साकार हो उठता है। दर्शन की उत्पत्ति का मूल कारण मनुष्य के मन का चिन्तन और विचार ही है। परन्तु पाश्चात्य-दार्शनिक दर्शन की उत्पत्ति के चार कारण प्रस्तुत करते हैं-विस्मय, संशय, नवीन वस्तु जानने की इच्छा, और असन्तोष । उनके दर्शन का समस्त चिन्तन इसी आधार पर हआ है । और इसी परिधि में वे अपना चिन्तन करते रहे हैं। विस्मय की भावना : यूनान के महान दार्शनिक प्लेटो ने कहा है-"Wonder is the parent of Philosophy" विस्मय की भावना ही दर्शन की जननी है । मनुष्य जब इस अनन्त नील-गगन की विशालता को, और धरती की असीमता को देखता है, तब उसके मन में विस्मय उत्पन्न हो जाता है। धरती में से फूट निकलने वाले रंग-बिरंगे फूलों के पौधे, छायादार और फलदार वृक्षों की पंक्ति, कल-कल करती बहती सरिताएँ, और रात्रि के अन्धकार में चमकते-दमकते तारे तथा मेघों से आवृत्त अनन्त आकाश उस के मन में विस्मय उत्पन्न करते हैं। जब मनुष्य देखता है, कि उदयाचल पर भास्कर अपने अनन्त प्रकाश से भू-मण्डल को भर रहा है, और जब मानव देखता है, कि अस्ताचल पर स्थित सूर्य अब अपने प्रकाश को समेट कर धीरे-धीरे विलुप्त हो रहा है, तब मनुष्य के मन में विस्मय की भावना भर जाती है । लहराता विशाल सागर जब तरंगों के तूफान से उद्वेलित हो जाता है, तब मनुष्य के मन में सहसा यह भाव उठता है, कि यह सब क्या है ? और क्यों है ? इस प्रकार विस्मय की भावना उसे विचारशील बनाकर दर्शन का मार्ग प्रशस्त करती है । संशय की भावना : जब मनुष्य जीवन और जगत की वस्तुओं को अपने सामने प्रत्यक्ष देखता है, तब उस के मन में यह संशय उठ खड़ा होता है, कि यह सब सत्य है अथवा भ्रम है ? वह सूर्य को एक लघु अग्नि-गोलक के समान पृथ्वी का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001339
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1992
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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