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पाश्चात्य दर्शन की पृष्ठभूमि १३१ तो सत्य ही है कि दर्शनशास्त्र का जन्म तभी से हुआ है, जब से इस धरती पर मानव का जन्म हुआ। दर्शनशास्त्र उतना ही प्राचीन है, जितनी कि मानव जाति । एक कवि को अपने काव्य गुफन में जो आनन्द आता है, और एक वैज्ञानिक को अपने अनुसन्धान में जो एकाग्रता एवं आनन्द आता है, उससे भी अधिक एकाग्रता एवं आनन्द एक दार्शनिक को अपने चिन्तन में आता है । पाश्चात्य दार्शनिक विलड्यूरेन्ट कहता है, कि क्या ही अच्छा होता, कि हम अपनी आत्मा को देख सकते । हमारे लिए यह आवश्यक है, कि हम यह समझें, कि जीवन का एवं जगत का सही अर्थ क्या है ? जीवन और जगत को समझने का प्रयत्न हो दर्शन-शास्त्र है। जीवन का जगत के साथ, और जगत का जीवन के स. : क्या सम्बन्ध है ? यह समझना ही दर्शन की उपयोगिता है । भारतीय-दर्शन के अनुसार भी अपने को समझना ही जीवन की सफलता एवं सार्थकता है । अपने को समझना यही दर्शन-शास्त्र का उपयोगितावाद कहा जा सकता है । जीवन की सर्वांगीण व्याख्या दर्शनशास्त्र ही कर सकता है। क्योंकि ज्ञान-साधना की अन्य समग्र शाखाएँ एकांगी हो जाती हैं। जबकि दर्शन-शास्त्र जीवन की सर्वांगीण व्याख्या प्रस्तुत करता है। थोरो का कहना है-"केवल गम्भीर एवं उच्च विचारों का पोषण अथवा किसी जटिल विचार-धारा से सम्बद्ध हो जाना ही दार्शनिकता नहीं है। दार्शनिकता का अर्थ है-शान एवं विद्या प्रेम । और जो कुछ समझा है, उस विवेक के साथ जीवन यापन करना।" वस्तुतः पवित्रतामय एवं आस्थामय जीवन व्यतीत करना ही वास्तविक दार्शनिकता है । बेकन का कहना था, कि हम सबसे पहले अपने मस्तिष्क को अच्छी वस्तुओं से पूर्ण कर लें, बाद में हमारी अन्य आवश्यकताएँ अपने आप ही पूर्ण हो जाएंगी, किंवा उनका अभाव हमें नहीं खलेगा। सत्य से हम समृद्ध नहीं बल्कि स्वतन्त्र होते हैं । बन्धनों से स्वतन्त्र होना ही दर्शन की उपयोगिता है । इससे बढ़कर दर्शन का अन्य कोई उपयोग नहीं हो सकता। वर्शन की उत्पत्ति :
दर्शन की उत्पत्ति किस प्रकार होती है, और उस के मूल कारण क्या है ? मानव मन का यह एक चिरकालीन एवं सनातन प्रश्न है ? अपने युग के सभी दार्शनिकों ने अपने युग की परिस्थिति के अनुसार इसका समाधान किया है। फिर भी यह प्रश्न आज भी उतना ही ताजा है, जितना किसी युग में रहा होगा। भारतीय दार्शनिकों ने समाधान किया है, कि सत्य की जिज्ञासा और सत्य के साक्षात्कार की मानव मन में जो प्रबल
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