SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पाश्चात्य दर्शन की पृष्ठभूमि १२७ है । यदि अध्यात्मवादी दर्शन का अर्थ उस दर्शन से है, जिसमें जगत, जीव और ईश्वर की चर्चा की जाती है, तब निश्चय ही पाश्चात्य दर्शन भी उतना ही आध्यात्मिक है, जितना कि भारतीय दर्शन । क्योंकि पाश्चात्य दर्शन में भी जगत, जीव और ईश्वर के सम्बन्ध में पर्याप्त विचार किया गया है। पाश्चात्य दर्शन भी कोई ऐसी धारा नहीं है, जिसमें इन तीन समस्याओं पर विचार न किया गया हो । फिर किस आधार पर यह कहा जाता है, कि पाश्चात्य दर्शन भौतिकवादी है । दूसरी बात पाश्चात्य दर्शन के सम्बन्ध में भारतीय आलोचक यह कहते आ रहे हैं, कि पश्चिमी दर्शन का जहाँ अन्त होता है, भारतीय दर्शन का वहाँ से प्रारम्भ होता है। इसका अर्थ यह है कि पाश्चात्य दर्शन ने जो अपना चरम विकास किया, उतना विकास तो हमारे भारतीय दर्शन के प्रारम्भ में ही हो चुका था। इसमें आत्म प्रशंसा और आत्म विकत्थन के अतिरिक्त अन्य कुछ हो नहीं सकता । भारतीय दर्शन की जो स्थिति वेद युग में रही है, वही स्थिति पाश्चात्य दर्शन की ग्रीक दर्शन में मानी जा सकती है। मेरे अपने विचार में पाश्चात्य दर्शन में और भारतीय दर्शन में किसी भी प्रकार का विरोध अथवा विसगति नजर नहीं आती। मेरा अपना यही विचार है, कि यूनानी युग में यूनान के दर्शन पर भारतीय दर्शन की छाप पड़ी हो, इसका कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं होता। कुछ लोग पायथागोरस के सम्बन्ध में, जो एक महान ग्रीक विचारक था, कहा करते हैं कि वे भारत में आये थे और यहां से भारतीय विचारों को लेकर वापिस अपने देश में लौटे। परन्तु ये सब कपोल कल्पित बातें है । इसके पीछे कोई ठोस प्रमाण या आधार नहीं है । युनान का और भारत का सम्बन्ध कब से स्थापित हुआ, यह एक अनुसन्धान का विषय हो सकता है, परन्तु यह निश्चित है कि यूनानी विचारधारा और भारतीय विचारधारा अपने में पूर्णतः स्वतन्त्र है। एक दूसरे पर आधारित नहीं है । दोनों दर्शनों में प्रायः एक जैसे विषयों का विवेचन हुआ है। इतना सत्य अवश्य है, कि आत्मा का जितना सूक्ष्म विवेचन और उसके साथ पुनर्जन्म आर मोक्ष का विवेचन जितना व्यापक भारतीय दर्शन में हुआ है, उतना पश्चिमी दर्शन में नहीं हो सका । पर आत्मा, मोक्ष और पुनर्जन्म का वर्णन पाश्चात्य दर्शन में सर्वथा ही न हुआ हो, यह बात अर्थहीन है । पश्चिमी दर्शन में और भारतीय दर्शन में कुछ बातों को लेकर अवश्य ही भेद हो सकता है। पश्चिमी दर्शन में अनुभव' को खण्डित रूप में लिया गया है, और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -
SR No.001339
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1992
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy