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________________ १२८ अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय भारतीय दर्शन में अखण्ड रूप में । वहां प्रत्यक्षवाद, अनुमानवाद, युक्तिवाद, प्रतिभावाद और रहस्यवाद की धाराएं भिन्न-भिन्न रूप में प्रवाहित हुई है। जबकि यहाँ प्रत्येक दर्शन में प्रत्यक्ष, युक्ति, प्रतिभा ज्ञान एवं रहस्यवाद का उपयोग होता रहा है और सदैव इनका समन्वय होता रहा है । परिणामस्वरूप भारत में विशुद्ध प्रत्यक्षवाद, विशुद्ध युक्तिवाद और विशुद्ध प्रतिभावाद का विकास नहीं हो सका। रहस्यवाद का विकास अवश्य हुआ है, वह स्वतन्त्र रूप से भी हुआ है। पर उसका विकास संस्कृत साहित्य में न होकर सन्त-दर्शन में हुआ, जिसका आधार संस्कृत भाषा न होकर हिन्दी, मराठी, गुजराती, बंगला और कन्नड़ जैसी प्रान्तीय भाषाएं रही हैं । पर शुद्ध प्रत्यक्षवाद अथवा शुद्ध तर्कवाद का स्वतन्त्र विश्लेषण भारत की किसी भी भाषा में अथवा परम्परा में नहीं रहा । इसका कारण यह है, कि यहाँ अनुभव की सर्वांगीणता का उपयोग होता रहा है, और किसी खण्डित अनुभव को लेकर दार्शनिक सम्प्रदाय को आवश्यक और समीचीन नहीं माना गया है । पश्चिमी दर्शन में दर्शन-शास्त्र की शाखाओं का विवेचन स्वतन्त्र होता रहा है, जैसे कि नीतिशास्त्र, तर्कशास्त्र और तत्त्व-दर्शन का विवेचन अरस्तू के समय से लेकर आज तक भिन्न-भिन्न धाराओं में होकर आया है। इसके विपरीत भारतीय दर्शन की परम्परा में दर्शन की सभी शाखाओं का विवेचन एक साथ होता रहा है। पश्चिमी दर्शन विश्लेषणात्मक है और भारतीय दर्शन संश्लेषणात्मक । प्रथम स्वतन्त्र होकर चलता है, और दूसरा सबको साथ समेटकर चलता है। विश्लेषण पश्चिमी दर्शन का गुण माना जा सकता है, पर एकांगी हो जाना उसका अवगुण ही कहा जाएगा। पश्चिमी दर्शन की अनेक धाराएं एकांगी हैं, जबकि भारतीय दर्शन की प्रत्येक शाखा सर्वांगीण रही है। पश्चिमी दर्शन का एकांगीपन एक दृष्टि से और भी अवगुण है। वह केवल जागृत अवस्था का दर्शन है, जबकि भारतीय दर्शन जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति सभी अवस्थाओं का दर्शन है। भारतीय दर्शन सत्य के साक्षात्कार पर अधिक बल देता रहा है, जबकि पश्चिमी दर्शन सत्य के विवेचन पर ही आग्रह करता रहा है। भारतीय दार्शनिक दृष्टा होता है, क्योंकि वह दर्शन से सत्य का साक्षात्कार करता है । पश्चिमी दार्शनिक समीक्षक एवं विवेचक होता है । सत्य का विवेचन करना और सत्य का साक्षात्कार करना इन दोनों में बड़ा अन्तर है। पश्चिमी दर्शन और पूर्वी दर्शन में एक महत्त्वपूर्ण भेद यह भी है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001339
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1992
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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