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अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय
असत्य और काल्पनिक हैं, उसी प्रकार जीव भी अविद्या के ऊपर आश्रित रहता है । ब्रह्म ही एकमात्र सत्ता है । इस ज्ञान के अभाव में ही जीव की सत्ता है । जाव ईश्वर की कल्पना उपासना के लिए करता है । ईश्वर जगत का स्वामी एवं नियन्ता है । वेदान्त में इसी को सगुण ब्रह्म या ईश्वर कहा जाता है । इस प्रकार सगुण ब्रह्म की कल्पना उपासना के निमित्त व्यावहारिक दृष्टि से की जाती है । पारमार्थिक दृष्टि से ब्रह्म निर्गुण है । आचार्य शंकर के मत में यह ब्रह्म सजातीय, विजातीय और स्वगत - इन तीनों भेदों से रहित होता है । ब्रह्म अनिर्वचनीय है । क्योंकि उसमें किसी गुण की सत्ता नहीं मानी जा सकती। इसी आधार पर इसे निर्गुण कहा जाता है । शंकर के मत में ब्रह्म के दो रूप होते हैं - विश्व और विश्वातीत । विश्व रूप में वह गुण सम्पन्न माना जाता है, परन्तु विश्वातीत रूप में वह अनिर्वचनीय रहता है । यही आचार्य शंकर के ब्रह्म का वास्तविक स्वरूप है |
मायावाद :
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वेदान्त दर्शन में माया का एक विचित्र स्वरूप है । निर्विशेष और निर्लक्षण ब्रह्म से सविशेष लक्षण जगत की उत्पत्ति क्यों होती है ? अथवा एक ही ब्रह्म से नानात्मक जगत की रचना कैसे होता है ? इन प्रश्नों का उत्तर मायावाद देता है । आचार्य शंकर ने अविद्या और माया दो शब्दों का प्रयोग समानार्थक रूप से किया है । परन्तु परवर्ती दार्शनिकों ने इन दोनों शब्दों में अर्थ भेद की कल्पना की है। परमेश्वर की बीज शक्ति का नाम माया है । माया सत् भी नहीं है, असत् भी नहीं है, और उभय रूप भी नहीं है । वह न भिन्न है, न अभिन्न है, और न भिन्नाभिन्न है । अपितु वह अत्यन्त अद्भुत एवं अनिर्वचनीय है । माया की दो शक्ति होती हैंआवरण तथा विक्षेप | आवरण शक्ति ब्रह्म के शुद्ध स्वरूप को आवृत कर देती है और विक्षेप-शक्ति उस ब्रह्म में आकाश आदि प्रपंच को उत्पन्न कर देती है । जिस प्रकार एक छोटा-सा मेघ दर्शकों के नेत्र को ढक देने के कारण अनेक योजन विस्तृत आदित्य मण्डल को ढकता मालूम होता है, उसी प्रकार परिच्छिन्न अज्ञान अनुभव कर्ता की बुद्धि को ढक देने के कारण अपरिच्छिन्न असंसारी आत्मा को आच्छादित-सा कर देता है । वेदान्त में इस शक्ति को आवरण कहा जाता है। जो शरीर के भीतर दृष्टा और दृश्य के तथा शरीर के बाहर ब्रह्म और सृष्टि के भेद को ढक देती है । जिस प्रकार रज्जु का अज्ञान रज्जु अपनो शक्ति से सर्प उत्पन्न करता है,
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