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________________ भारतीय दर्शन के विशेष सिद्धान्त १२१ उसी प्रकार माया भी अज्ञानाच्छादित आत्मा में इस शक्ति के बल पर आकाश आदि जगत प्रपंच को उत्पन्न करती है। इसी आधार पर इस दूसरी शक्ति का नाम विक्षेप कहा जाता है । आवरण का अर्थ है-वास्तविक स्वरूप पर पर्दा डाल देना, तथा विक्षेप का अर्थ है- उस पर दूसरी वस्तु का आरोप कर देना। ये दोनों माया हैं। विवर्तवाद : आचार्य शंकर की व्याख्या के अनुसार जगत ब्रह्म का परिणाम नहीं है, अपितु विवर्त है। विवर्तवाद क्या है ? इसे समझाने के लिए वेदान्त परम्परा के आचार्यों ने बहुत कुछ लिखा है। कार्यों के रूप में जो हम परिवर्तन देखते हैं, वह केवल मानसिक आरोप है, वास्तविक नहीं है। इसी मानसिक आरोप को आचार्य शंकर ने अपनी परिभाषा के अनुसार अध्यास कहा है। कार्य-कारण की श्रृंखला पर विचार करने से हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं, कि कारण ही एकमात्र सत्ता है, उसके समस्त आकार एवं प्रकार मिथ्या हैं । कारण कि इस असत्य एवं काल्पनिक परिवर्तन को अद्वैतवाद की भाषा में विवर्त कहा जाता है। रज्जू के सर्प को प्रतीति विवर्तवाद है । वेदान्त सिद्धान्त में एकमात्र ब्रह्म को ही सृष्टि का उपादान कारण माना गया है। सांख्य-दर्शन का परिणामवाद कहता है, कि कारण स्वयं ही कार्य रूप में बदल जाता है। परन्तु विवर्तवाद के अनुसार यह परिवर्तन अपने आप में सत्य नहीं है, मिथ्या है । ब्रह्म के अतिरिक्त इस जगत में जो कुछ प्रतीत होता है, वह वास्तव में सत्य नहीं है। जैसे स्वप्न में हम जो कुछ देखते हैं, वह सत्य नहीं होता। ब्रह्म जगत की असत्यता और काल्पनिकता की सिद्धि अद्वैत-वेदान्त अपने इसी विवर्तवाद और अध्यासवाद के आधार पर करता है। इस प्रकार अद्वैत-वेदान्त में ब्रह्म और माया की व्याख्या की है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001339
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1992
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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