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________________ .. भारतीय दर्शन के विशेष सिद्धान्त १११ को एक सर्वथा नयी वस्तु (आरम्भ) मानते हैं। सांख्य को यह सिद्धान्त मान्य नहीं है । सांख्य-दर्शन की मान्यता के अनुसार कार्य न एक नयी उत्पत्ति है, और न कारण में उसका अभाव होता है। न्याय-वैशेषिक का सिद्धान्त असत्कारणवाद अथवा आरम्भवाद के नाम से प्रसिद्ध है और सांख्य दर्शन का सिद्धान्त सत्कार्यवाद अथवा परिणामवाद के नाम से प्रसिद्ध है । अद्वैत-वेदान्त भी कार्य का कारण में भाव मानने से सत्कार्यवाद को ही स्वीकार करता है । फिर भी अद्वैत-वेदान्त और सांख्यों के सिद्धान्तों में भेद है। सांख्य यह मानता है, कि कारण और कार्य समान रूप से सत्य होते हैं । और कार्य कारण का परिणाम होता है। इसके विपरीत अद्वैतवेदान्त यह मानता है, कि कारण सत्य होता है, जबकि कार्य उसका विवर्त अर्थात् मिथ्या प्रतीति होता है । सांख्य परिणामवाद को मानता है, जबकि अद्वैत वेदान्त विवर्त्तवाद को। ये दोनों ही वाद सत्कार्यवाद के भिन्न-भिन्न रूप हैं । जैन-दर्शन भी परिणामवादी है। अतः वह सत्कार्यवादी है। वह विवर्त्तवाद में विश्वास नहीं करता। विवर्त्तवाद एक ऐसा सिद्धान्त है, कि जो सत्य वस्तु को भी मिथ्या और कल्पित सिद्ध करता है। अतः विश्व की समस्या का समाधान वास्तविकता के आधार पर परिणामवाद ही कर सकता है, विवर्त्तवाद नहीं। विवर्त्तवाद कारण (ब्रह्म) को तो सत्य मानता पर कार्य को असत्य, भ्रम और कल्पित मानता है, जो कि वस्तुतः अनुभव के आधार पर सत्य नहीं कहा जा सकता । परिणामवाद के अनुसार प्रत्येक कार्य अपने कारण में प्रसुप्त है, निमित्त मिलने पर वह प्रकट हो जाता है। प्रकृति और परिवर्तन : सांख्य दर्शन के अनुसार परिवर्तनशील घटनाओं का एक अधिष्ठान है। प्रारम्भ में वह सत्त्व, रज और तम को साम्यावस्था में रहती है। सांख्य-दर्शन के अनुसार साम्यावस्था निष्क्रिय अवस्था नहीं है, बल्कि सत्त्व, रज और तम की तुल्यबल की अवस्था है। पुरुष कार्य इस प्रकार के प्रभाव डालते हैं, जिससे गुणों की साम्यावस्था टूट जाती है, प्रकृति के परिणाम पुरुषों के भोग और मोक्ष के प्रयोजन से होता है, जब गुणों की साम्यावस्था टूट जाती है, तब कुछ अन्य गुणों को अभिभूत कर देते हैं, और प्रकृति का परिणाम प्रारम्भ हो जाता है। गुणों की न सृष्टि होती है, और न विनाश । सांख्य का यह सिद्धान्त परिणामवाद के नाम से प्रसिद्ध है। ईश्वर ने जगत को शून्य से नहीं बनाया। . Pri h . i Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org rii
SR No.001339
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1992
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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