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११० अध्यात्म प्रवचन : भाग तृताय जीवात्माओं को अपने-अपने धर्माधर्म के अनुसार फल मिल सके । न्यायदर्शन में कहा गया है, कि ईश्वर परमाणुओं से जगत की रचना इस प्रकार करता है, कि जीवात्माओं को सुख एवं दुःख का उचित भोग मिल सके । संसारी आत्मा सत् और असत् कर्म करके धर्म और अधर्म का अर्जन करते हैं । सत् कर्म से धर्म होता है, और असत् कर्म से अधर्म । धर्म का फल सुख है और अधर्म का दुःख । सुख और दुःख बाह्य वस्तुओं पर भी निर्भर होते हैं, परन्तु वे सब कुछ ईश्वर की इच्छा पर निर्भर हैं।
४. वेदों के प्रामाण्य पर आश्रित युक्ति-न्याय-दर्शन वेदों को अनित्य और पौरुषेय मानता है। इसके विपरीत मीमांसा-दर्शन वेदों को नित्य और अपौरुषेय मानता है। न्याय-दर्शन वेदों के प्रामाण्य से ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध करता है । ईश्वर वेदों का कर्ता और संहर्ता है। वेद नैतिक नियमों के भण्डार हैं और ईश्वर के आदेश रूप हैं। वेदों में जो विधि और निषेध हैं, वे सब ईश्वर के आदेश की अभिव्यक्ति हैं । वेद में जो कुछ कहा गया है, वह परमार्थतः सत्य है और तक एवं अनुमान से परे हैं। वेदों के श्रवण, मनन और निदिध्यासन से उन बातों का ज्ञान होता है । वेदों की सत्यता निर्विवाद और असंदिग्ध है। सबसे प्रबल प्रमाण तो यही है, कि ईश्वर उनका वक्ता है। ईश्वर पूर्ण और सर्वज्ञ है। उसके कर्तृत्व के कारण ही वेद प्रमाण हैं। ईश्वर वेदों के द्वारा जीवों को चरम सत्य का और नैतिक नियम का ज्ञान देता है। इस प्रकार हम देखते हैं, कि न्याय-दर्शन अपने तर्कों के आधार पर ईश्वर की सिद्धि करता है। न्याय-दर्शन के अनुसार ईश्वर ही इस जगत का आधार है। ईश्वर की कृपा से ही संसारी आत्मा मोक्ष अथवा मुक्ति प्राप्त कर सकता है। न्याय-दर्शन का ईश्वरवाद उसका सबसे अधिक प्रबल पक्ष माना जाता है । सांख्य-दर्शन का परिणामवाद :
सांख्य-दर्शन का सबसे बड़ा सिद्धान्त परिणामवाद है। सांख्य-दर्शन सत्यार्थवादी है । उसका कहना है, कि कार्य अपने कारण में पहले से ही विद्यमान रहता है। सांख्य का यह सिद्धान्त है, कि जगत का मूल प्रकृति के विकास से हुआ है, उसके एक विशेष कारण-सिद्धान्त पर आश्रित हैं। सांख्यदर्शन का कारण-सिद्धान्त यह है, कि कार्य कारण में पहले से ही अव्यक्त रूप में रहता है । कार्य कारण का परिणाम होता है। दूसरे शब्दों में कार्य अभिव्यक्त कारण है । इसके विपरीत न्याय-दर्शन और वैशेषिक-दर्शन कार्य
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