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________________ भारतीय दर्शन के विशेष सिद्धान्त १०६ २. प्रयोजन पर आश्रित युक्ति (Toleological argument)-नदी, पर्वत और अन्य प्राकृतिक वस्तुओं में जो एक सन्निवेश अथवा व्यवस्था नजर आती है, वह यादृच्छिक नहीं माना जा सकता । इनका सन्निवेश वैसा ही है, जैसा घड़े, कपड़े और अन्य मनुष्य कृत वस्तुओं में नजर आता है । जो वस्तु सन्निवेश विशिष्ट होती है, उसका कर्ता कोई बुद्धिमान व्यक्ति ही हो सकता है । जिस प्रकार घट आदि वस्तुओं का सन्निवेश बुद्धिमान मनुष्य की इच्छा और क्रिया के कारण होता है, उसी प्रकार पर्वत आदि प्राकृतिक वस्तुओं की रचना सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान ईश्वर की इच्छा और क्रिया के कारण ही होती है। पाश्चात्य दर्शन में ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध करने के लिए दो प्रकार के तर्क दिये गये हैं-जगत को एक कार्य बताकर यह युक्ति देना, कि उसका कोई कर्ता होना चाहिए । विश्वकारणाश्रित (cosmological) तर्क है । और जगत की व्यवस्था के आधार पर यह युक्ति देना, कि उसका कोई व्यवस्थापक होना चाहिए । प्रयोजनाश्रित (teleological) तक है। विश्वकारणाश्रित युक्ति ईश्वर को जगत का व्यवस्थापक सिद्ध करती है। पाश्चात्यदर्शन में इन दोनों युक्तियों को अलग-अलग रखा गया है, परन्तु न्याय-दर्शन में इन दोनों को एक साथ मिला दिया गया है। ईश्वर जगत का कर्ता ही नहीं है, धारण करता ही नहीं है, बल्कि इसके साथ ही ईश्वर जगत का संहार करने वाला भी है। प्रत्येक कार्य कालान्तर में नष्ट हो जाता है। ईश्वर जब चाहता है, तब बड़े-बड़े पदार्थों से लेकर द्वयणुकों तक समस्त संसार का संहार कर लेता है । इस प्रकार ईश्वर जगत का कर्ता, धर्ता और संहर्ता है। ३. नैतिक तर्क (Moral argument)-ईश्वर नित्य परमाणुओं से जीवात्माओं के धर्म और अधर्म के अनुसार उनको सुख और दुःख का भोग कराने के लिए जगत का निर्माण करता है । ईश्वर जगत की व्यवस्था कर्म के नैतिक नियम के अनुसार करता है। जो चीज कारण के नियम पर आश्रित भौतिक व्यवस्था प्रतीत होती है, वह यथार्थतः नैतिक व्यवस्था है। जगत की व्यवस्था जीवात्माओं की नैतिक आवश्यकताओं को पूरा करने की है । ईश्वरीय इच्छा से जो कार्य उत्पन्न होते हैं, वे जीवात्माओं की नैतिक योग्यताओं के अनुसार हैं । ईश्वर जगत को उत्पन्न करता है, ताकि १ भारतीय दर्शन, पृ. १७० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001339
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1992
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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