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________________ १०८ अध्यात्म प्रवचन : भाग सृतोय गया है- ईश्वर के अस्तित्व के प्रमाण क्या हैं ? और ईश्वर का स्वरूप क्या है ? ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए न्याय-दर्शन में अनेक प्रकार के तर्क और वितर्क दिये हैं, जिसमें चार मुख्य हैं। इन तकों के आधार पर यह सिद्ध हो जाता है, कि ईश्वर है, और जगत रूप कार्य का कर्ता एकमात्र वही है । क्रम से वे तर्क इस प्रकार हैं १. कारणाश्रित युक्ति (Causal argumant)-जगत एक कार्य है। कार्य बिना कारण के नहीं होता । प्रत्येक कार्य का कोई कारण अवश्य होता है । जगत रूप कार्य का भी कोई कारण अवश्य होना चाहिए। जगत रूप कार्य का जो कारण है, वही ईश्वर है । न्याय-दर्शन ईश्वर को जगत का निमित्त कारण कहता है। प्रत्येक कार्य का कोई कर्ता होना चाहिए, जैसे घट का । जगत एक कार्य है, अतः उसका कोई कर्ता होना चाहिए। वह कर्ता ही ईश्वर है । जिस प्रकार घड़े का निर्माण करने वाला कुम्भकार होता है, उसी प्रकार जगत का निर्माण करने वाला ईश्वर है। इस तर्क में ये बातें मुख्य हैं - प्रत्येक कार्य का कोई कारण होता है, प्रत्येक कार्य का कोई चेतन कर्ता होना चाहिए, जगत एक कार्य है, जगत का कोई चेतन कर्ता होना चाहिए, जो कि ईश्वर ही हो सकता है। न्याय-दर्शन ईश्वर को जगत का निमित्त कारण और परमाणुओं को उसका उपादान कारण मानता है। ये परमाणु ईश्वर के समान ही नित्य हैं। परमाणु चार प्रकार के होते हैंपृथ्वी, जल, तेज और वायु । जगत में जितने भी कार्य होते हैं, उनके उपादान कारण ये परमाणु ही हैं। और ईश्वर प्रत्येक कार्य में निमित्त कारण रहता है । न्याय-दर्शन ईश्वर को जगत का निमित्त कारण मानता है, उपादान कारण नहीं । क्योंकि ईश्वर स्वय अपने स्वरूप से जगत की रचना नहीं करता, और न अपने संकल्प मात्र से उसे शून्य से उत्पन्न करता है । परमाणु देश और काल में सदा से अस्तित्व रखते हैं। उन्हीं का सयोग करके ईश्वर ने जगत की रचना की है। इससे जगत में एकता, व्यवस्था और सामञ्जस्य नजर आता है। इस प्रकार के जगत की उत्पत्ति परमाणुओं के क्रमहीन संयोग से नहीं मानी जा सकती। इस तर्क के आधार पर यह कहा जाता है, कि ईश्वर ही वह बुद्धिमान कर्ता है। ईश्वर को परमाणुओं का अपरोक्ष ज्ञान है। वह परमाणुओं से जगत का निर्माण करने की इच्छा रखता है, और उसके लिये प्रयत्न करता है। जगत की रचना करने वाला ईश्वर सर्वज्ञ है, सर्वशक्तिमान है तथा सब कुछ करने का उसमें सामर्थ्य है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001339
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1992
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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