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________________ भारतीय दर्शन के विशेष सिद्धान्त १०१ . स्याद्वाद को जन्म दिया । स्थाद्वाद सुनय का निरूपण करने वाली विशिष्ट भाषा पद्धति है। स्यात् शब्द यह सुनिश्चित रूप से बताता है, कि वस्तु केवल इसी धर्म वाली नहीं है। उसमें इसके अतिरिक्त भी अनेक धर्म विद्यमान हैं। उसमें अविवक्षित गुण-धर्मों के अस्तित्व की रक्षा स्यात् शब्द करता है। जैसे रूपवान घट में स्यात् शब्द रूपवान के साथ नहीं जुड़ता, क्योंकि रूप के अस्तित्व की सूचना तो रूपवान स्वयं ही दे रहा है, किन्तु अन्य अविवक्षित शेष धर्मों के साथ उसका अन्वय है। इस प्रकार स्याद्वाद उस वस्तु तत्त्व का प्रतिपादन करता है, जिसका निश्चय अनेकांतवाद से किया गया था। वस्तु की अनेकात्मकता और भाषा के निर्दोष प्रकार जो स्याद्वाद को समझ लेने के बाद सप्त-भंगी का स्वरूप और भेद समझना भी आवश्यक है। सात भंग इस प्रकार हैं-स्यादस्ति घटः, स्यात् नास्ति घटः, स्यादस्तिनास्ति घटः, स्यादवक्तव्यः घटः, स्यादस्ति अवक्तव्यः घटः, स्याद्नास्ति अवक्तव्यः घटः और स्यादस्तिनास्ति अवक्तव्यः घटः। इस प्रकार स्वचतुष्टय की अपेक्षा घट है और परचतुष्टय की अपेक्षा से घट नहीं है । अस्ति और नास्ति एक साथ नहीं कहा जा सकता। इसीलिए क्रमापित भंग बनता है । वस्तु के अनन्त धर्मों को एक समय में एक साथ नहीं कहा जा सकता । इसी आधार पर अवक्तव्य भंग बनता है। इस प्रकार सप्त भंगी में द्विसंयोगी और त्रिसंयोगी भंगों को मिलाकर सप्त भंग अर्थात् सात विकल्प स्वीकार किए गए हैं। प्रत्येक प्रश्न का उत्तर देते समय इन सप्त भंगों में से ही किसी भंग से दिया जाता है। इसमें मुख्य दृष्टि स्व और पर की है । संक्षेप में यह सप्त भंगी का स्वरूप है । भंगों का इतिहास : अनेकांतवाद और स्याद्वाद की चर्चा के प्रसंग में यह स्पष्ट हो गया है, कि भगवान महावीर ने परस्पर विरुद्ध धर्मों का स्वीकार एक ही धर्मी में किया, और इस प्रकार उनकी समन्वय की भावना में से अनेकांतवाद का जन्म हुआ है। किसी भी विषय में प्रथम अस्ति-विधि-पक्ष होता है। फिर इंसरा पक्ष नास्ति-निषेध-पक्ष लेकर खण्डन करता है। अतएव समन्वय करने वाले के सामने जब तक दोनों विरोधी पक्षों की उपस्थिति न हो, तब तक समन्वय का प्रश्न उठता ही नहीं। इस प्रकार अनेकांतवाद अथवा स्याद्वाद के मूल में अस्ति और नास्ति पक्ष का होना आवश्यक है। भंगों के १ जन दर्शन, पृ० ५१७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001339
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1992
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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