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________________ १०२ अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय इतिहास की ओर यदि हम ध्यान दें, तो हमें सर्वप्रथम ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में भंगों का कुछ आभास मिलता है । इस सूक्त के ऋषि के सामने दो मत थे-एक जगत् के आदि कारण को सत् कहता था, तो दूसरा असत् । इस प्रकार ऋषि के सामने जब समन्वय की सामग्री उपस्थित हई, तव उसने कह दिया, कि वह सत् भी नहीं और असत् भी नहीं। इस प्रकार सत्, असत् और अनुभय-ये तीन पक्ष तो ऋग्वेद जितने पुराने सिद्ध होते हैं। उपनिषदों में आत्मा अथवा ब्रह्म को ही परम-तत्त्व मानकर के आन्तर एवं बाह्य सभी वस्तुओं को उसी का प्रपंच मानने की प्रवृत्ति हुई, तब यह स्वाभाविक है, कि अनेक विरोधों की भूमि ब्रह्म अथवा आत्मा ही बने । इसका परिणाम यह हुआ, कि उस आत्मा एवं ब्रह्म अथवा ब्रह्म-स्वरूप विश्व को ऋषियों ने अनेक विरोधी धर्मों से अलंकत किया। जब उन विरोधों के तार्किक समन्वय में भी उन्हें सम्पूर्ण सन्तोष न हुआ, तब वचनागोचर अथवा अवक्तव्य और अनुभव-गम्य कहकर छोड़ दिया गया। इस प्रकार उपनिषद् वाक्यों में दो विरोधी धर्मों का स्वीकार किसी एक ही धर्मी में अपेक्षा भेद से किया गया है, यह स्पष्ट हो जाता है। विधि और निषेध दोनों पक्षों का विधि मुख से समन्वय उन वाक्यों से हआ है। ऋग्वेद के ऋषि ने दोनों विरोधी पक्षों को अस्वीकृत करके निषेध मुख से तीसरे अनुभय पक्ष को उपस्थित किया है। जबकि उपनिषदों के ऋषियों ने दोनों विरोधो धर्मों के स्वीकार के द्वारा उभय पक्ष का समन्वय करके उक्त वाक्यों में विधि-मुख से चतुर्थ उभय भंग का आविष्कार किया। इस प्रकार भंगों के संयोग और वियोग से सप्त-भंगी का जन्म हुआ। स्थाद्वाद के भंगों की विशेषता : स्याद्वाद के भंगों में भगवान महावीर ने पूर्व के चार भंगों के अतिरिक्त अन्य भंगों की भी योजना की है। उपनिषद् वाक्यों में मांडक्य को छोड़कर किसी एक भी ऋषि ने उक्त चारों पक्षों को स्वीकृत नहीं किया। किसी ने सत्-पक्ष को, किसी ने असत्-पक्ष को, और किसी ने उभय-पक्ष को तथा किसी ने अवक्तव्य-पक्ष को स्वीकृत किया है, जबकि मांडक्य ने आत्मा के विषय में चारों पक्षों को स्वीकृत किया है । बौद्ध-साहित्य के त्रिपिटक में चार अव्याकृत प्रश्न और सजय के चार भंग और भगवान महावीर के स्याद्वाद के भंग इन सभी में परस्पर क्या विशेषता है, यह भी ध्यान देने . १ आगम-युग का जैन-दर्शन, पृष्ठ ६३, पं० दलसुख जी कृत । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001339
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1992
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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