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________________ १०० मध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय करना चाहता है, जिससे साधक को भ्रम न हो और वह भटक न जाए । अतः आत्मा का निश्चय-नय से वर्णन करते समय शुद्ध ज्ञायक भाव ही आत्मा का स्वरूप कहा गया है। बन्ध और राग आदि को पर कोटि में डाल दिया है, जिसमें पुद्गल आदि प्रकट रूप में पर पदार्थ पड़े हुए हैं । व्यवहार-नय पर-सापेक्ष पर्यायों को ग्रहण करने वाला होता है। पर-द्रव्य तो स्वतन्त्र हैं, अतः उन्हें तो अपना कहने का प्रश्न ही नहीं उठता। इस प्रकार निश्चय और व्यवहार के आधार पर भी नयों का कथन जैन-दर्शन में उपलब्ध होता है । यह तो कहा ही जा चुका है, वस्तु के किसी एक ही अश या धर्म को पकड़ कर जो विचार किया जाता है, वह नय है। इन समस्त नयों का जो समुदाय अथवा सामूहिक रूप है, वही अनेकान्त है। अनेकान्तवाद का मूल आधार यह नय दृष्टि है। अतः नय दृष्टि को समझने के बाद ही अनेकान्तवाद को समझा जा सकता है। इस अनेकान्तवाद के आधार पर जैनाचार्यों ने अपने पूर्वकाल में अनेक दर्शनों का समन्वय किया था। सप्त भंगी: - स्याद्वाद को समझने के लिए सप्त भंगी को समझना आवश्यक है । क्योंकि सप्त भंगी एक वह प्रकार है, जिसके आधार पर हम किसी भी प्रश्न . का उत्तर अथवा 'समाधान दिया करते हैं । विभिन्न अपेक्षा, दृष्टि बिन्दु, अथवा मनोवृत्ति से एक ही वस्तु के भिन्न-भिन्न अर्थ हो सकते हैं। जब हम किसी भी प्रश्न का उत्तर देते हैं, तब उसके समाधान में हम जो कुछ कहते हैं, उस कथन की पद्धति सप्त भंगीवाद है। सप्त भंगी का अर्थ है-जिसमें सात भंग अथबा सात विकल्प हों। अनेकांत-दृष्टि अथवा नय-दृष्टि विराट वस्तु को जानने का वह प्रकार है, जिसमें विवक्षित धर्म को जानकर भी अन्य धर्मों का निषेध नहीं किया जाता । उन्हें गौण अथवा अविवक्षित किया जाता है, और जिस प्रकार पूरी वस्तु का मुख्य गौण भाव से स्पर्श हो जाता है, उसका एक भी अंश छूटने नहीं पाता। जिस समय जो धर्म विवक्षित होता है, वह उस समय मुख्य एवं अर्पित बन जाता है, और शेष धर्म गौण अथवा अनर्पित बन जाते हैं । इस प्रकार जब मनुष्य को दृष्टि अनेकांत तत्व का स्पर्श करने वाली बन जाती है, तब उसके समझने का एवं समझाने का ढंग भी निराला ही हो जाता है। वह सोचता है, कि हमें उस शैली से अथवा पद्धति से वचन प्रयोग करना चाहिए, जिससे वस्तु-तत्त्व का यथार्थ प्रतिपादन हो । इस शैली अथवा भाषा के निर्दोष प्रकार की आवश्यकता ने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001339
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1992
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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