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भारतीय दर्शन के विशेष सिद्धान्त ६६ पर्याय-दृष्टि है ।' इन दो नयों के ही आगे चलकर सात भेद हो जाते हैंनेगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत । ये सात नय जैन-दर्शन में प्रसिद्ध हैं । निश्चय नय और व्यवहार नय :
अभी तक नयों का जो विभाग किया गया था, वह दार्शनिक और ताकिक पद्धति से किया गया था। परन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से भी जैनदर्शन के ग्रन्थों में नयों का भेद किया गया है-निश्चय और व्यवहार । अध्यात्म-शास्त्र में नयों के निश्चय और व्यवहार ये दो भेद प्रसिद्ध हैं। निश्चय-नय को भूतार्थ और व्यवहार-नय को अभूतार्थ भी कहा गया है। जिस प्रकार अद्वैतवाद में पारमार्थिक और व्यावहारिक दो रूपों में तथा शून्यवाद एवं विज्ञानवाद में परमार्थ और सांवृत दो रूपों में अथवा उपनिषदों में सूक्ष्म और स्थूल दो रूपों में तत्त्व के वर्णन की पद्धति देखी जाती है, उसी प्रकार अध्यात्म-शास्त्र में भी निश्चय और व्यवहार इन दो भेदों को स्वीकार किया गया है। अन्तर इतना है, कि जैन-अध्यात्मवाद का निश्चय-नय वस्तु की वास्तविक स्थिति को उपादान के आधार से ग्रहण करता है, पर वह अन्य पदार्थों के अस्तित्व का निषेध नहीं करता, जबकि वेदान्त अथवा विज्ञान का परमार्थ अन्य पदार्थों के अस्तित्व को ही समाप्त कर देता है । निश्चय-नय पर-निरपेक्ष स्वभाव का वर्णन करता है । जिन पर्यायों में परनिमित्त पड़ जाता है, उन्हें वह शुद्ध नहीं कहता। पर-जन्य पर्यायों को वह पर मानता है। जैसे जीव के राग एवं द्वष आदि भावों में यद्यपि आत्मा स्वयं उपादान होता है, क्योंकि वही रागरूप से एवं द्वष रूप से परिणत होता है। परन्तु ये भाव कर्म निमित्तक हैं । अतः इन्हें वह अपने आत्मा के निज' रूप नहीं मानता। अन्य आत्माओं और जगत के समस्त अजीवों को तो वह अपना मान ही नहीं सकता, किन्तु जिन आत्मविकास के स्थानों में पर का थोड़ा भी निमित्त होता है, उन्हें वह पर के खाते में ही डाल देता है । अतः समयसार में जब आत्मा के वर्ण, रस, स्पर्श एवं गन्ध आदि प्रसिद्ध पर रूपों का निषेध किया है, तो वहीं पर गुणस्थान आदि पर-निमित्तक स्वधर्मों का भी निषेध कर दिया गया है। दूसरे शब्दों में निश्चय-नय अपने मूल लक्ष्य अथवा आदर्श का पूर्ण वर्णन
१ जैन-दर्शन, पृ. ४८१
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