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________________ भाषा-विज्ञान और व्याकरण ८७ लेकिन व्याकरण-शास्त्र में आगम से अभिप्राय, इन सबसे अतिरिक्त होता है। यहाँ आगम का अभिप्राय है, कि जब किसी शब्द में कोई अक्षर बाहर से आकर जुड़ जाए तो उसे व्याकरण-शास्त्र में आगम कहा गया है। आगम स्वरों में भी होता है, और व्यञ्जनों में भी होता है। यहाँ तक कि पूरा स्वर तथा पूरा व्यञ्जन भी नया ही आ जाता है। आगम के भेद : आगम के अनेक भेद होते हैं, लेकिन उसमें तीन भेद मुख्य हैं-स्वर आगम, व्यञ्जन आगम और अक्षर आगम। आगम ध्वनि-परिवर्तन का एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त है, उसका विपरीत है, लोप का सिद्धान्त। आगम का कारण है, मुख-सुख अर्थात् उच्चारण की सुविधा। आगम का दूसरा कारण है, उपमान अथवा सादृश्य, जिसके आधार पर ध्वनियों का आगम होता है। कविता में मात्रिक छन्दों में, मात्रा की पूर्ति के लिए वर्णागम होता है। जैसे कि कृपाला, दयाला आदि में 'आ' का आगम। स्वरागम जैसे कि कृष्णा से कसणा, भक्त से भगत, इन्द्र से इन्दर और प्रसाद से परसाद आदि। व्यञ्जनागम जैसे कि उल्लास से हुलास, अंसली से हंसली और अस्थि से हड्डी आदि। अक्षरागम जैसे कि कल्लस से चकल्लस, स्फोट से विस्फोट, अमूल्य से अनमोल, वधू से वधूटी, मुख से मुखड़ा, डफ से डफली, जीभ से जीभड़ी आदि। निरुक्त में शब्दार्थ विचार वैदिक साहित्य का सुन्दर तथा सार्थक अर्थ प्रतिपादित करने में वेदांगों का महत्व-पूर्ण स्थान है। वेदांगों में भी निरुक्त महत्वपूर्ण माना गया है। क्योंकि वैदिक शब्दों के अर्थ करने में निरुक्त का अध्ययन परम आवश्यक है। इसके बिना शब्दों का यथार्थ अर्थ समझना कठिन है। निर् उपसर्ग पूर्वक उक्त, विशेष रूप से कथन करना ही निरुक्त कहा गया है। वेद के शब्दों का अर्थ करने के लिए कोषों की भी रचना की थी, ये निघण्टु नाम से प्रसिद्ध हैं। निघण्टु शब्द वैदिक कोष के अर्थ में रूढ़ है। लेकिन शब्दों का अर्थ जानना ही पर्याप्त नहीं होता, उनकी व्युत्पत्ति को समझना भी आवश्यक था, जिसकी पूर्ति निरुक्त करता है। निरुक्त अथवा निरुक्ति के पाँच भेद होते हैं१. वर्णागमः २. वर्ण-विपर्ययः ३. वर्ण-विकारः ४. वर्ण-नाशः ५. धात्वर्थ-संबन्ध कहीं पर शब्दों में आगम होता है, कहीं विपर्यय, कहीं विकार, कहीं लोप और घातु के अर्थ का सम्बन्ध। जैन परम्परा में पञ्चांगी वेद के षड़ अंग होते हैं, और जैन आगम के पाँच अंग होते हैं। अतः जैन आगम को पञ्चांगी कहा जाता है। ये पाँच अंग हैं-मूल आगम, नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि और संस्कृत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001338
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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