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७६ अध्यात्म-प्रवचन आसक्ति है, वहाँ अनासक्ति नहीं रह सकती, यह एक निश्चित सिद्धान्त है। क्या कभी एक म्यान में दो तलवारें रह सकती हैं ? कभी नहीं।
प्रभु का मार्ग भी इतना संकरा है, कि उसमें आत्म-ज्ञान और संसार एक साथ नहीं रह सकते। उसमें भगवान और शैतान एक साथ नहीं रह सकते। यदि आपने अपने मन के सिंहासन पर रावण को बैठा लिया है, तो वहाँ राम के बैठने का स्थान नहीं रह सकता। एक ही सिंहासन पर राम और रावण दोनों नहीं बैठ सकते। मन के सिंहासन पर राम को बैठाने के लिए वहाँ से रावण को हटाना ही पड़ेगा। भला यह कैसे सम्भव हो सकता है, कि अन्धकार और प्रकाश दोनों मित्र बन कर एक साथ चलते रहें। जब एक रहता है, तब दूसरा गायब हो जाता है। अन्धकार के रहने पर प्रकाश नहीं रहता और प्रकाश के आजाने पर अन्धकार नहीं ठहर सकता। आत्म-ज्ञान हो जाने पर संसार भाव नहीं होता और संसार के रहते हुए आत्म-भाव नहीं होता। - मेरे कहने का अभिप्राय इतना ही है, कि संसार का विनाश अथवा विलोप, इसका अर्थ इतना ही है कि संसार के पदार्थों के प्रति आसक्ति हमारे मन में न रहे। संसार के जिस पदार्थ के प्रति हमारे मन में राग है, वह हमें सुख रूप प्रतीत होता है और संसार के जिस पदार्थ के प्रति हमारे मन में द्वेष रहता है, वह हमें दुःख रूप प्रतीत होता है, किन्तु संसार के जिस पदार्थ के प्रति हमारे मन में न किसी प्रकार का राग है और न किसी प्रकार का द्वेष है, वह पदार्थ हमें न सुख रूप होता है और न दुःख रूप होता है।
वस्तुतः इसी वीतराग स्थिति को अथवा वीतराग दशा को संसार का विनाश अथवा संसार का विलोप कहा जाता है। पदार्थ के रहते हुए भी उसकी सुख-दुःखात्मक प्रतीति न होना, जैनदर्शन के अनुसार इसी को संसार का अभाव कहा जाता है। जब पदार्थ का राग
और द्वेष हमारे मन में नहीं है, तब वह पदार्थ हमारे मन में कैसे ठहर सकता है ? और पदार्थ का मन में न ठहरना ही उस पदार्थ का अभाव या विनाश है।
जब आत्म स्वरूप की प्रतीति होती है, तब वह स्वभाव की ओर जाता है। इसका यह अर्थ हुआ कि जब आत्मा विभाव से हट कर स्वभाव की ओर जाता है, तब संसार की स्थिति रह ही नहीं सकती है। वस्त्र में जब मैल जम जाता है, तब वस्त्र की धवलता दृष्टि में नहीं आती है। स्वच्छ रहने पर ही वस्त्र की धवलता दृष्टि में आती है। जब वस्त्र का मैल दूर हो जाता है, तब वस्त्र की धवलता की प्रतीति होती है, किन्तु उसके मैल की प्रतीति नहीं होती। इसी प्रकार मैं आपसे कह रहा था, कि जब आत्मा में एकत्व आता है, तब अनेकत्व नहीं आता है। एक समय में दो में से कोई एक ही ध्यान में आ सकता है। जब आपकी बुद्धि एकत्व में स्थिर रहती है, तब उसमें अनेकत्व की तरंग नहीं उठ सकती और जब उसमें अनेकत्व की तरंग उठती है, तब उसमें एकत्वभाव स्थिर नहीं रहने पाता।
आपके सामने दो तत्व हैं-एक सृष्टि और दूसरी दृष्टि। सृष्टि का अर्थ है-संसार और दृष्टि का अर्थ है-विचार और विवेक। इन दोनों में से पहले किसको बदला जाए,
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