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संसार-मुक्ति का हेतु : ज्ञान ७७ सृष्टि को अथवा दृष्टि को ? भारतीय धर्म और दर्शन में इस विषय पर बड़ी गम्भीरता के साथ विचार किया गया है। जैन दर्शन का कथन है, कि सृष्टि को बदलने का प्रयत्न मत करो। पहले दृष्टि को बदलो। यदि दृष्टि बदल जाती है, तो फिर सृष्टि के बदलने के लिए पृथक् प्रयास की आवश्यकता ही नहीं रहती। ___ जैन दर्शन का मूल संघर्ष सृष्टि के साथ नहीं है, संसार के साथ नहीं है, बल्कि दृष्टि
और विचार के साथ है। यदि आपने अपनी विपरीत दृष्टि और विचार को नहीं बदला है, तो हजार-हजार प्रयत्न करने पर भी संसार बदला नहीं जा सकता। आप जानते हैं कि भीष्म पितामह ने तथा विदुर जैसे पण्डित ने दुर्योधन को बदलने का कितना प्रयत्न किया था, किन्तु उसकी दृष्टि में बदलाव न आने के कारण भीष्म पितामह और अन्य नीतिज्ञ पुरुष दुर्योधन के संसार को बदल नहीं सके। दुर्योधन के जीवन के कण-कण में द्वेष-दृष्टि का जो विष व्याप्त था, उसको दूर किए बिना उसके बाह्य जीवन को बदलने के समग्र प्रयत्न निष्फल और व्यर्थ गए।
अतःजैन-दर्शन यह कहता है कि सृष्टि को बदलने से पूर्व दृष्टि को बदलो। यदि दृष्टि बदल जाती है, तो फिर शरीर, इन्द्रिय और मन के रहते हुए भी हमारी अध्यात्म-साधना में किसी प्रकार की बाधा उपस्थित नहीं हो सकती। मेरे विचार में मूल बात संसार को बदलने की नहीं है, बल्कि अपने मन को बदलने की है। ___मैं आपसे कह रहा था कि जीवन में बाना बदलने का महत्व नहीं है, बड़ी बात है, बान बदलने की। आत्मा का स्वभाव अनन्तकाल से जैसा रहा है, अनन्तकाल तक वैसा ही रहेगा, इसमें किसी भी प्रकार का सन्देह नहीं है। शास्त्र में कहा गया है, कि पानी गरम होकर जब खौलने लगता है और हाथ डालने पर जब हाथ भी जलने लगता है, तब साधारणतया यह कह दिया जाता है, पानी आग हो गया है परन्तु वस्तु स्थिति यह है, कि पानी सदा पानी ही रहता है, वह कभी आग नहीं बनता। पानी न कभी आग बना है और न कभी भविष्य में बन ही सकेगा। बात वास्तव में यह है, कि अग्नि के संयोग से पानी में गरमी आगई है। पानी की उष्णता की ओर जब ध्यान दिया जाता है, तब प्रतीत होता है, कि वह आग हो गया है। परन्तु पानी तो पानी ही है। जब तक अग्नि के स्वभाव को महत्व दिया जाता है, तब तक पानी को आग भले ही कहा जाए, परन्तु वह गरम पानी, गरम होने से पूर्व भी पानी ही था, गरम होने पर भी पानी है और आगे भी पानी ही रहेगा। यदि उस गरम पानी को भी आग पर डाला जाए, तो वह आग को बुझा डालेगा। इससे यह स्पष्ट हो जाता है, कि उष्णता के संयोग के बाद भी पानी का स्वभाव बदला नहीं, बल्कि वही रहा, जो उसका अपना स्वभाव था। अग्नि का संयोग होने पर भी जब वह आग के समान उष्ण हुआ, तब भी उसका मूल स्वभाव शीतलता ही था, अग्नि को बुझाने का ही था, अन्यथा वह आग को कैसे बुझा सकता था? जब मूल स्वभाव पर दृष्टि दी जाती है, तब पानी गरम होने पर भी पानी ही है, परन्तु जब संयोगी भाव की ओर दृष्टि जाती है,
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