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________________ संसार-मुक्ति का हेतु : ज्ञान ७५ नहीं रह पाता। शरीर, मन और इन्द्रिय आदि के रहने पर भी दृष्टि में जब अभिन्नता आ जाती है, तब संसार का नानात्व खड़ा नहीं रह सकता। यह तभी सम्भव होता है, जब लक्ष्य एवं दृष्टि आत्म-तत्व पर पहुँच जाती है। मिट्टी का ज्ञान करने के लिए मिट्टी के स्वभाव के पास पहुँचना पड़ता है और मिट्टी के स्वभाव के पास पहुँच जाने पर, मिट्टी के बने विभिन्न खिलौने, मिट्टी ही नजर आने लगते हैं। आत्मा के सम्बन्ध में भी यही सत्य लागू पड़ता है। पशु, मनुष्य और देव का शरीर अथवा जीवन तभी तक नजर आता है, जब तक पर्याय-बुद्धि है। परन्तु जब दृष्टि पर्याय से हट कर त्रिकाली परम पारिणामिक भाव रूप आत्मस्वभाव के निकट पहुँच जाती है, तब मालूम पड़ता है कि वह आत्मा न पशु है, न मनुष्य है, और न देव ही, आत्मा तो आत्मा है। जब आत्म-ज्ञान हो जाने पर नाना आकार-प्रकारों में आत्मा का ही परिबोध होता है, उस स्थिति में यह बाह्य संसार उदय भाव में रहने पर भी आपकी दृष्टि में उसका विनाश हो जाता है। जब आत्म-दृष्टि उदयभाव से हटकर पारिणामिक भाव में पहुँच जाती है, तब सदा और सर्वथा उसे आत्मा ही आत्मा दृष्टिगोचर होता है। जैन दर्शन के अनुसार यही द्रव्य दृष्टि और अभेद बुद्धि है। इसका परिज्ञान हो जाने पर संसार के रहते हुए भी उस साधक के लिए संसार नहीं रहने पाता, इसी को संसार का विनाश कहते हैं। __ इस बाह्य जगत को छोड़कर जब हम आन्तरिक जगत पर विचार करते हैं तब हम जान पाते हैं, कि यह संसार क्षण में नष्ट हो जाता है और क्षणभर में ही फिर खड़ा हो जाता है। ऐसा क्यों होता है ? इस प्रश्न के समाधान में कहा गया है, कि आसक्ति ही सबसे बड़ा संसार है। अनासक्ति ही संसार का विनाश है। जब साधक के मन में अनासक्ति भाव रहता है, तब बाह्य पदार्थों की सत्ता रहने पर भी वे साधक को पकड़ नहीं सकते। इस दृष्टि से मेरे कहने का अभिप्राय यही है, कि आसक्ति ही संसार है और अनासक्ति ही संसार का अभाव एवं विनाश है।जब मनुष्य भोजन करता है, और जब मधुर एवं कटु पदार्थों को ग्रहण करता है, तब उसकी आत्मा का उपयोग यदि उसकी जिह्वा के साथ जुड़ जाता है, तो उसे स्वाद की अनुभूति होती है, परन्तु जब उपयोग का सम्बन्ध जिह्वा से नहीं रहता, तब पदार्थ का सेवन करते हुए भी उसमें रस की अनुभूति नहीं होने पाती। ___ इसका सीधा अर्थ यही हुआ, कि वस्तु का स्वभाव अर्थात् स्वाद नष्ट हो गया। यद्यपि उसका स्वभाव एवं स्वाद नष्ट तो नहीं हुआ, किन्तु वह खाने वाले की अनुभूति में नहीं रहा। क्यों कि उसकी आत्मा का उपयोग उसकी जिह्वा के साथ नहीं रहा। इसी प्रकार यदि अनुभूति में वह नहीं रहा, तो उसके होते हुए भी, वह नहीं रहा या नष्ट हो गया, यह कहा जाता है। जैन दर्शन के अनुसार किसी भी वस्तु का सर्वथा अभाव नहीं होता, बल्कि उसका अनुभूति में न आना ही उसका अभाव है। जहाँ राग है, वहाँ वैराग्य नहीं रह सकता, जहाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001338
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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