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अध्यात्म-प्रवचन
भारतीय दर्शन का लक्ष्य एकत्व में अनेकत्व का दर्शन नहीं है, बल्कि अनेकत्व में एकत्व का दर्शन करना है। भारतीय दर्शन अनेकत्व में एकत्व का, भेद में अभेद का, खण्ड में अखण्डता का और पर्याय में द्रव्य का विधान करता है। यही है, एक मात्र उसका अपना लक्ष्य एवं केन्द्र-विचार । भेद-बुद्धि इस जगत को खण्ड-खण्ड रूप में देखती है, जबकि अभेद-बुद्धि इसे अखण्ड रूप में देखती है। प्रत्येक साधक को यह विचार करना चाहिए कि इस भेद-बुद्धि से उसे कभी सुख और शान्ति मिलने वाली नहीं है। एकत्व में अनेकत्व की प्रतीति इसलिए होती है, क्योंकि यह आत्मा अनन्तकाल से पर्याय बुद्धि में और भेद-बुद्धि रहता आया है। अतः अपने इस वर्तमान जीवन में यदि वह अभेद में भेद को देखता है, तो यह उसके संस्कारों का दोष है।
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जैन दर्शन के आचार्यों ने एक बहुत बड़ी बात कही है। उनका कथन है कि सम्यक् दर्शन वहाँ रहता है, जहाँ पर्याय- बुद्धि, भेद-बुद्धि और खण्ड- बुद्धि नहीं रहती । वस्तुतः द्रव्य बुद्धि और अभेद बुद्धि ही वास्तविक सम्यक् दर्शन है । इस अभेद - बुद्धि को समझना बहुत बड़ी बात है। जब तक यह अभेद-बुद्धि हमारे जीवन के कण-कण में रम न जाएगी, तब तक अध्यात्म-साधना सफल नहीं हो सकेगी। भेद में अभेद दर्शन करना ही अध्यात्म- जीवन की सर्वोच्च कला है।
इस सम्बन्ध में प्राचीन आचार्यों ने एक बहुत ही सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत किया है। इस उदाहरण में उन प्राचीन आचार्यों ने यह बतलाया है कि किस प्रकार अभेद में भेद-बुद्धि उत्पन्न हो जाती है। एक कुम्भकार मिट्टी से घड़ा, ढक्कन, सुराही, सिकोरा और नाना प्रकार के खिलौने बना डालता है। मिट्टी एक ही है, किन्तु कुम्भकार अपने निमित्त के योग के उसको नाना आकारों में बदल देता है। जब मिट्टी के इन नाना रूप - विधान में अनेक वस्तुओं का निर्माण हम देखते हैं, तब हमें नानात्व की एवं अनेकत्व की प्रतीति होने लगती हैं। जैन दर्शन के अनुसार इसको भेद-बुद्धि और पर्याय बुद्धि कहा जाता है।
परन्तु जरा विचार तो कीजिए, इन समस्त रूप परिवर्तनों के पीछे एक ही तत्व है, मिट्टी । जिस प्रकार एक ही मिट्टी नाना रूप, आकार और प्रकारों को धारण करती है, उसी प्रकार यह आत्मा भी कर्मवश होकर नाना योनियों को एवं विभिन्न स्थितियों को प्राप्त होती रहती है। एक ही आत्मा कभी नारक, कभी तिर्यञ्च, कभी मनुष्य और कभी देव बनती रही है। आत्मा के नाना रूप और पर्याय भेद-बुद्धि पर आश्रित हैं। अभेद-बुद्धि से विचार किया जाए, तो इन नाना आकारों और प्रकारों के पीछे एक ही सत्ता और एक ही शक्ति है, आत्मा। जिस प्रकार मिट्टी के नाना आकारों के पीछे, मूल रूप में मिट्टी एक ही है, उसी प्रकार आत्मा की नाना पर्यायों के पीछे मूल रूप में आत्मा एक ही है। संसार में जहाँ-जहाँ हमें नानात्व और अनेकत्व दृष्टिगोचर होता है, वह सब पर्याय का खेल है। पर्याय का जन्म भेद-बुद्धि से ही होता है ।
एक बात और है, जब तक आत्मा में पर्याय दृष्टि विद्यमान है, तभी तक यह नानात्व दृष्टिगोचर होता है । पारिणामिक दृष्टि के जागृत होते ही नानात्व और अनेकत्व स्थिर
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