SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७० अध्यात्म-प्रवचन कल्पना कीजिए, एक व्यक्ति जिसका अपना घर नहीं है, वह किसी दूसरे का घर किराए पर ले कर उसमें रहता है, वह व्यक्ति जब तक उसमें रहता है, तब तक वह उसे अपना ही कहता है। वह कभी नहीं कहता कि यह घर मेरा नहीं है। यही दृष्टि मैं आपको यहाँ बतला रहा था। शरीर और आत्मा स्वभावतः भिन्न होने पर भी, यहाँ पर शरीर को जो मेरा कहा गया है, इस उपचार कथन का मुख्य कारण शरीर और आत्मा का संयोग सम्बन्ध ही है। इसी प्रकार मेरी इन्द्रियाँ और मेरा मन, यह यह कथन भी उक्त आधार पर ही किया जाता है। भेद होते हुए भी यहाँ अभेद का कथन उपचार से किया गया है, और वह उपचार भी सद्भूत न होकर असद्भूत ही है। इसी आधार पर इस दृष्टि को असद्भूत व्यवहार नय कहा जाता है। मैं आपसे यह कह रहा था कि जब दृष्टि अभेदप्रधान होती है, तब निश्चय नय होता है और जब दृष्टि भेदप्रधान होती है, तब व्यवहार नय होता है। व्यवहार नय में भी कथन दो प्रकार का होता है-सद्भूत और असद्भूत। जब सद्भुत कथन होता है, तब वह सद्भूत व्यवहार नय कहलाता है और जब कथन असद्भूत होता है तब उसे असद्भूत व्यवहार नय कहा जाता है। वस्तुकथन के अनेक प्रकार हैं। एक ही वस्तु का कथन अनेक प्रकार से किया जा सकता है। इसी को अनेकान्त दृष्टि अथवा अनेकान्तवाद कहा जाता है,जो जैनदर्शन का प्राण है। ___मैं आपसे निश्चय नय और व्यवहार नय की बात कह रहा था। निश्चय और व्यवहार के सम्बन्ध में यथार्थ दृष्टिकोण समझाने का मैंने प्रयल किया है। मैं समझता हूँ कि विषय बड़ा गम्भीर है, पर यह भी सत्य है कि इसे समझे बिना आप जैन-दर्शन के मर्म को नहीं समझ सकते। जैन दर्शन के अध्यात्मवाद को समझने के लिए तो निश्चय नय और व्यवहार नय को समझना परमावश्यक है। __ निश्चय और व्यवहार के स्वरूप को समझने के लिए एक दूसरे प्रकार से भी विचार किया गया है, जो इस प्रकार है। आत्मा और कर्म पुद्गल को एक क्षेत्रावगाही कहा है। आकाश रूप क्षेत्र में आत्मा और कर्म पुद्गल दोनों रहते हैं। अतः आत्मा और कर्म पुद्गल दोनों का क्षेत्र एक है, परन्तु यह कथन व्यवहार दृष्टि से किया गया है। निश्चय नय में यह कथन यथार्थ नहीं है, क्योंकि निश्चय नय की दृष्टि से आत्मा आत्मा में रहता है, कर्म-कर्म में रहता है, और आकाश-आकाश में रहता है। निश्चय नय की दृष्टि से प्रत्येक द्रव्य अपने में ही रहता है, किसी दूसरे में नहीं। प्राचीन काल में भी इस प्रकार का प्रश्न उठाया गया था कि आत्मा कहाँ रहता है और सिद्ध कहाँ रहते हैं ? इसके उत्तर में कहा गया है कि आत्मा और सिद्ध आकाश में रहते हैं, परन्तु आकाश में तो आकाश रहता है, फिर वहाँ आत्मा और सिद्ध कैसे रह सकते हैं, अतः वस्तुस्थिति यह है कि आत्मा आकाश में नहीं रहता, बल्कि आत्मा में ही रहता है। इसी प्रकार कर्म आकाश में नहीं रहता, कर्म में ही रहता है। यह निश्चय दृष्टि है। परन्तु व्यवहार नय की दृष्टि में एक क्षेत्रावगाही एवं संयोगी होने के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001338
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy