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नय ज्ञान की दो धाराएँ ६९ हए भी, इस उदाहरण में, उसमें भेद की कल्पना की गई है। इसी आधार पर यह सद्भुत व्यवहार नय है। सद्भूत व्यवहार नय मानता है, कि जो वस्तु सत् है, उसमें भेद भी है। इस प्रकार आत्मा में और उसके गुणों में भेद न होने पर भी जब भेद की कल्पना की जाती है तब उसे व्यवहार नय कहा जाता है। व्यवहार नय में उपचार किया जाता है। यहाँ ज्ञान गुण और आत्मा में भेद न होने पर भी भेद का उपचार किया गया है, अतः व्यवहार नय
व्यवहार नय का दूसरा भेद है-असद्भूत व्यवहार नय। असद्भूत व्यवहार नय कहाँ होता है, इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है, कि जहाँ भेद का कथन हो, किन्तु वह सद्भूत न होकर यदि असद्भूत हो तो वहाँ पर असद्भूत व्यवहार नय का कथन किया जाता है। उदाहरण के लिए समझिए कि जब मैं यह कहता हूँ कि, 'यह शरीर मेरा है' तब यह कथन असद्भूत व्यवहार नय कहलाता है। वस्तुतः यह शरीर मेरा नहीं है, अर्थात् जीव का अपना नहीं है, यह तो पुद्गलों से बना हुआ है। इसी प्रकार मन और इन्द्रिय भी आत्मा के अपने न होकर शरीर के समान पौद्गलिक ही हैं। फिर भी व्यवहार में हम यह कहते हैं कि मेरा शरीर, मेरी इन्द्रियाँ और मेरा मन। वस्तुतः उक्त तीनों तत्व अपने न होते हुए भी हम उनमें अपनत्व का उपचार करते हैं। इसी आधार पर इस दृष्टि को असद्भूत व्यवहार नय कहा जाता है। ___कल्पना कीजिए; आपके सामने एक मिट्टी का घड़ा रक्खा हुआ है, उसमें कभी घी रखा था। अतः उस मिट्टी के घड़े को जब आप मिट्टी का न कह कर, घी का घड़ा कहते हैं, तब इसका अर्थ यह होता है कि आपका यह कथन असद्भुत व्यवहार नय की दृष्टि से हुआ है। वास्तव में घड़ा न कभी घी का होता है और न तेल का होता है, किन्तु संयोग सम्बन्ध को लेकर हम यह कहते हैं कि यह घी का घड़ा है और यह तेल का घड़ा है। क्योंकि भूत काल में अथवा वर्तमान काल में उस घड़े के साथ हम घी का और तेल का संयोग सम्बन्ध देख चुके हैं, इसी आधार पर व्यवहार में हम यह कह देते हैं, कि घी का घड़ा अथवा तेल का घड़ा लाओ। भविष्य के संयोग सम्बन्ध को लेकर भी वर्तमान में घी घड़ा
और तेल का घड़ा, इत्यादि व्यवहार हो सकता है। परन्तु यह कथन सत्यभूत नहीं है। इसीलिए इसे असद्भूत व्यवहार नय कहा जाता है, क्योंकि घड़ा घी से और तेल से कभी निर्मित नहीं होता।
शरीर और आत्मा में भेद है, परन्तु दोनों के संयोग को लेकर यह कथन कर दिया गया है, कि 'मेरा शरीर।' शरीर और आत्मा में भेद है, क्योंकि शरीर भौतिक है और आत्मा अभौतिक है। शरीर जड़ है, और आत्मा चेतन है। चेतन रूप आत्मा का जड़ रूप शरीर अपना कैसे हो सकता है। यह सत्य होने पर भी हम देखते हैं, कि आत्मा इस शरीर में वास करता है। देही इस देह में विद्यमान है। जब देही इस देह में निवास करता है तो उपचार से यह मान लिया गया, कि यह शरीर आत्मा का है।
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