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________________ ६८ अध्यात्म-प्रवचन न है । अभेद दृष्टि से देखने पर आत्मा का एक और अखण्ड विशुद्ध स्वरूप ही परिज्ञात हो जाता है, इसके विपरीत व्यवहार नय से देखने पर आत्मा पर्याय भाव से भिन्न-भिन्न ही प्रतीत होती है, उसमें अभेद का दर्शन नहीं होने पाता । मैं आपसे निश्चय नय की बात कर रहा था, किन्तु अब व्यवहार नय के सम्बन्ध में भी कुछ विचार कर लें । व्यवहार नय के मुख्य रूप में दो भेद हैं- सद्भूत व्यवहार नय तथा असद्भूत व्यवहार नय । यदि आप गम्भीरता के साथ विचार करेंगे तो आपको यह प्रतीत होगा कि इन दोनों में मौलिक भेद क्या है ? जब हम ज्ञान और आत्मा को अभिन्न मानते हुए कहते हैं, कि ज्ञान स्वयं आत्मा है, तब यह निश्चय नय की भाषा होती है । और जब हम ज्ञान और आत्मा को भिन्न मानते हुए यह कहते हैं कि ज्ञान आत्मा का गुण है, तब यह व्यवहार नय होता है। ज्ञान आत्मा का गुण है, यह सद्भूत व्यवहार नय है । यहाँ पर आत्मा गुणी है और ज्ञान उसका गुण है। गुण कभी अपने गुणी से अलग नहीं हो सकता और गुणी भी कभी गुणशून्य नहीं हो सकता। जल में शीतलता रहती है और अग्नि में उष्णता रहती है, किन्तु जल की शीतलता को जल से अलग नहीं किया जा सकता और अग्नि की उष्णता को भी अग्नि से कभी अलग नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार आत्मा के ज्ञान गुण को कभी आत्मा से अलग नहीं किया जा सकता । गुण और गुणी में अभेदता और अखण्डता रहती है। फिर भी ज्ञान आत्मा का गुण है, इस उदाहरण में भेद की जो प्रतीति होती है, वह अभेद में भेद का केवल व्यवहार है । व्यवहार में आत्मा को गुणी माना जाता है और ज्ञान को उसका गुण माना जाता है, यह तो बोलने और समझने की भाषा है। वस्तुतः गुण और गुणी में किसी प्रकार का भेद नहीं रहता है। ज्ञान जब कभी रहेगा, तब आत्मा में ही रहेगा, आत्मा से अलग वह कहीं रह नहीं सकता, फिर भी यहाँ पर जो गुण गुणी में भेद बतलाने का प्रयत्न किया है, उसका अभिप्राय इतना ही है, कि यह कथन अभेद दृष्टि से न होकर भेद दृष्टि से किया गया है। जैन दर्शन के अनुसार गुण और गुणी में तादात्म्य सम्बन्ध है, आधार - आधेय भाव सम्बन्ध नहीं है, जैसा कि घृत और पात्र में होता है । घृत आधेय है और पात्र उसका आधार है। पात्र में घृत संयोग सम्बन्ध से रहता है, परन्तु घृत पात्र स्वरूप न होने से उनका सम्बन्ध तादात्म्य सम्बन्ध नहीं हो सकता। जबकि आत्मा का और उसके ज्ञान गुण का सम्बन्ध तादात्म्य सम्बन्ध होता है। जैन दर्शन के अनुसार गुण और गुणी में न एकान्त भेद होता है और न एकान्त अभेद । जैन दर्शन के अनुसार गुण और गुणी में कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद रहता है। मूल द्रव्य की अपेक्षा से अभेद सम्बन्ध रहता है और गुण एवं पर्याय की दृष्टि से भेद सम्बन्ध रहता है। ज्ञान आत्मा का गुण है, यहाँ पर जो भेद बतलाया है, वह सद्भूत है, असद्भूत नहीं, क्योंकि ज्ञान आत्मा में ही मिलता है, आत्मा के अतिरिक्त अन्यत्र उसकी उपलब्धि नहीं होती। इसी आधार पर यह कहा जाता है, कि यह सद्भूत व्यवहार नय है। सद्भूत होते हुए भी यह व्यवहार ही है, निश्चय नहीं। क्योंकि हाँ भेद की कल्पना की जाती है, वहाँ व्यवहार ही होता है। ज्ञान आत्मा से अभिन्न होते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001338
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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