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________________ नय ज्ञान की दो धाराएँ ६७ देह के अस्तित्व की प्रतीति करना, इन्द्रिय और मन आदि के स्वरूप को जानना भी, चतुर्थ गुणस्थान पर आरोहण करने के लिए अर्थात् सम्यक्त्व प्राप्ति के लिए आवश्यक नहीं है। कर्म को एवं आत्मा के अशुद्ध स्वरूप को स्वीकार करने में भी सम्यक्त्व की कोई ज्योति एवं प्रकाश नहीं है, क्योंकि जहाँ तक देह, इन्द्रिय, मन, कर्म और राग और द्वेष हैं, वहाँ तक संसार की स्थिति ही रहती है । सम्यक् दृष्टि आत्मा का दृष्टिकोण शरीर, इन्द्रिय, मन और कर्म आदि से परे होना चाहिए, क्योंकि ये सब भौतिक होते हैं। एक अभौतिक तत्व आत्मा ही उसके जीवन का लक्ष्य होता है। कर्म एवं राग-द्वेष आदि के विकल्प भी आत्मा के अपने नहीं हैं। अज्ञानी आत्मा अज्ञानवश ही इन्हें अपना समझता है। कर्म आत्मा का स्वरूप नहीं है। क्योंकि वह त्रैकालिक नहीं है, आगन्तुक है। कर्म का मूल कारण राग और द्वेष हैं। सम्यक् दृष्टि आत्मा इन विभाव भावों को कभी अपना स्वरूप नहीं समझता । एक मात्र शुद्ध आत्म तत्व को ही वह अपना स्वरूप समझता है। धर्म-साधना का एक मात्र उद्देश्य यही है, कि आत्मा स्व-स्वरूप में लीन हो जाए। धर्म क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है, कि वस्तु का अपना स्वभाव ही धर्म है । अतः आत्मा का जो त्रिकाली ज्ञायक स्वरूप है, वही धर्म है। मैं आपसे निश्चय दृष्टि की बात कह रहा था । जीवन के असंख्यात एवं अनन्त विकल्पों को छोड़कर स्व-स्वरूप की प्रतीति करना ही निश्चय नय है। मन के संकल्प और विकल्पों से परे आत्मा का दर्शन करना ही सम्यक्त्व है। आत्मा अनन्य और अभेद्य है। आत्मा के इस स्वरूप का श्रद्धान ही सम्यक् दर्शन कहा जाता है। आत्म-स्वरूप की प्रतीति हुए बिना, अपने स्वरूप को समझे बिना, अपने को धर्म-साधना में लगाए रखना सम्भव नहीं है। मैं आपसे यह कह रहा था, कि आत्मा के अशुद्ध स्वरूप को न देखकर उसके शुद्ध स्वरूप को ही ग्रहण करना, यही निश्चय नय है। निश्चय नय के अभाव में धर्म-साधना का मूल्य एक शून्य बिन्दु से बढ़कर नहीं रहता । निश्चय नय निमित्त को न पकड़ कर उपादान को पकड़ता है, जबकि व्यवहार नय उपादान पर न पहुँच कर, केवल निमित्त में ही अटक जाता है। व्यवहार दृष्टि से देखने पर तो यह आत्मा अशुद्ध और कर्मबद्ध प्रतीत होता है, किन्तु निश्चय नय से देखने पर वह अबद्ध और शुद्ध प्रतीत होता है । व्यवहार नय से देखने पर आत्मा का शुद्ध स्वरूप नहीं जाना जाता, क्योंकि निमित्त कारणों से होने वाले परिवर्तनों को ही वह आत्मा का स्वरूप समझने लगता है, जबकि निश्चय नय से देखने पर हमें आत्मा का शुद्ध स्वरूप ही परिज्ञात होता है, क्योंकि निश्चय नय आत्मा के विभाव-भावों को आत्मा का स्वरूप नहीं मानता। निश्चयनय और व्यवहार नय के सम्बन्ध में आपको एक बात और समझ लेनी चाहिए कि व्यवहार नय का आधार भेद दृष्टि है, जबकि निश्चय नय का आधार अभेद दृष्टि है। भेद में अभेद देखना, यह निश्चय नय है और अभेद में भेद देखना, यह व्यवहार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001338
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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