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________________ संसार-मुक्ति का हेतु : ज्ञान ७१ कारण दोनों का क्षेत्र एक कहा जाता है। दूध और पानी मिलने पर यह नहीं कहा जाता कि यह दूध का पानी है, बल्कि यह कहा जाता है, कि यह दूध है। क्योंकि जब दूध पानी मिल गए तो दोनों अलग कहाँ रहे? परन्तु निश्चय दृष्टि से देखने पर दूध और पानी एक नहीं हो सकते। दूध-दूध है और पानी-पानी। एक क्षेत्रावगाही होने मात्र से ही दोनों एक नहीं हो सकते। इसी प्रकार यहाँ पर भी आत्मा और कर्म एक क्षेत्रावगाही होने से एक नहीं हो सकते। निश्चय नय की दृष्टि से विचार करने पर आत्मा और कर्म दोनों की सत्ता अलग-अलग है। आत्मा चेतना है और कर्म पुद्गल हैं, वे दोनों एक कैसे हो सकते हैं, जबकि दोनों के स्वभाव अलग-अलग हैं। अतः व्यवहार नय से आकाश रूप एक क्षेत्र में रहते हुए भी निश्चय से वे अलग हैं। कल्पना कीजिए, आप स्वर्ण खरीदने के लिए बाजार गए। यदि किसी प्रकार आपको यह मालूम हो जाएगा कि जिस स्वर्ण को आप खरीद रहे हैं, उसमें मिलावट है, तो निश्चय ही आप खोटे सोने को खरीदने के लिए तैयार नहीं होंगे। मिलावट उसी अवस्था का नाम है, जबकि दो विभिन्न वस्तुओं का मिश्रण होता है। जब सोने में सोने के अतिरिक्त किसी दूसरी धातु का मिश्रण होता है, तब आप उसे लोक-भाषा में खोटा सोना कहते हैं। इसी प्रकार खोटा रुपया, खोटा पैसा आदि व्यवहार आप करते रहते हैं। जब तक आपको सोने के खोटेपन का बोध नहीं था, तब तक आप उसे खरीद सकते थे, किन्तु जब उसके खोटेपन का परिज्ञान आपको हो जाता है, तब आप उसे नहीं खरीदते। इसी प्रकार आत्मा और कर्म दोनों अलग-अलग पदार्थ हैं, किन्तु अनादिकाल से उनका संयोग है।आत्मप्रदेश और कर्म परमाणु परस्पर दूध और पानी के समान मिले हुए हैं, परन्तु यह दृष्टि व्यवहार दृष्टि है, निश्चय दृष्टि नहीं। निश्चय दृष्टि में किसी भी प्रकार की मिलावट ग्रहण नहीं की जा सकती। आत्मा को आत्मा समझना और कर्म को कर्म समझना, यही निश्चय दृष्टि है। व्यवहार दृष्टि आत्मा और कर्म में भिन्नता की प्रतीति नहीं करती, वह कर्म को आत्मा का ही रूप समझ लेती है, जिस प्रकार कि एक अज्ञानी व्यक्ति खोटे सोने को सच्चा सोना समझने की भूल कर लेता है। इसके विपरीत निश्चय दृष्टि वह है, जो वस्तु के मूल स्वरूप को ग्रहण करती है। आत्मा के मूल-स्वरूप को ग्रहण करने वाली दृष्टि, आत्मा के वैभाविक रूप को ग्रहण कैसे कर सकती है। मैं आपसे यह कह रहा था, कि जीवन-विकास के लिए निश्चय नय का ज्ञान परमावश्यक है। निश्चय नय आत्मा के विशुद्ध स्वरूप को समझने के लिए परम साधन है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001338
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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