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________________ ६४ अध्यात्म-प्रवचन ___ ज्ञान का यह स्वभाव है कि वह पदार्थ के स्वरूप का ज्ञान कराता है, इसके लिए हमें अपनी ज्ञान चेतना को यह आदेश नहीं देना पड़ता कि तुम पदार्थों का ज्ञान हमें कराओ। जिस प्रकार दर्पण का यह स्वभाव है कि उसके सामने जैसा बिम्ब आता है, वैसा ही उसमें प्रतिबिम्बित हो जाता है। इसी प्रकार ज्ञान का भी यह स्वभाव है, कि पदार्थ जैसा होता है, वैसा ही ज्ञान में प्रतिभासित हो जाता है। ज्ञान हो और वह अपने ज्ञेय का ज्ञान न कराए, यह कभी सम्भव नहीं हो सकता। ज्ञान में हजारों, लाखों, पदार्थ ज्ञेयरूप में प्रतिबिम्बित होते रहते हैं। केवलज्ञानी के ज्ञान में तो समस्त अनन्तानन्त पदार्थ और एक-एक पदार्थ की अनन्त-अनन्त पर्याय ज्ञेयरूप में प्रतिक्षण प्रतिबिम्बित होती रहती हैं। दर्शनशास्त्र के अनुसार किसी पदार्थ का ज्ञान करने के लिए तीन तत्वों की आवश्यकता होती है-ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय। इसी की चर्चा मैंने आपसे की है। ज्ञाता आत्मा है, ज्ञान उसकी शक्ति है और ज्ञान का विषय बनने वाला पदार्थ ज्ञेय होता है। संसार में पदार्थ अनन्त हैं, इसलिए उन अनन्त पदार्थों को विषय करने वाला ज्ञान भी अनन्त है। किन्तु आवरण-दशा में ज्ञान सीमित होता है, अतः सीमित पदार्थ ही हमारे ज्ञेय बनते हैं। निरावरण-दशा में ज्ञान अनन्त हो जाता है, अतः वह अनन्त पदार्थों को जान सकता है। अध्यात्म-शास्त्र के अनुसार ज्ञान दो प्रकार का है-स्वभाव-ज्ञाम और विभाव-ज्ञान। स्वभाव ज्ञान का अर्थ है, वह ज्ञान जिसमें न रागांश हो, और न द्वेषांश हो, आत्मा की शुद्ध दशा को ग्रहण करने वाला ज्ञान स्वभावज्ञान होता है। आत्मा का ज्ञान जब ज्ञानरूप में रहता है, तब संवर और निर्जरा की साधना से इस संसारी आत्मा को मुक्ति की प्राप्ति हो जाती है। जब ज्ञान के साथ राग-द्वेष रहता है, तब ज्ञान की वह विभाव दशा होती है। विभाव-दशा में आत्मा आम्नव के कारण कर्मबन्ध करता है और कर्मबन्ध के कारण संसार में परिभ्रमण करता है। इस दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि स्वभाव-ज्ञान मोक्ष का कारण है और विभाव-ज्ञान संसार का कारण है। ज्ञान की विशुद्धि और पवित्रता ही जीवन के विकास का कारण है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001338
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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