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________________ ६. नय ज्ञान की दो धाराएँ श्रुतज्ञान के सम्बन्ध में कुछ विशेष विचार करने की अपेक्षा है। श्रुतज्ञान प्रमाण रूप है, क्योंकि वस्तुतत्व का अखण्ड रूप से बोध करता है। श्रुतज्ञान रूप विराट् महासागर में रूपी, अरूपी, पुद्गल, आत्मा और धर्मास्तिकाय आदि सभी पदार्थों का ज्ञेयत्वेन समावेश हो जाता है। वह अपने ज्ञान प्रकाश में अनन्त वस्तुओं का निरूपण करता है। भले ही उन अनन्त वस्तुओं की झलक श्रुतज्ञान में परोक्ष रूप से ही होती है; परन्तु वह अपने में समग्र पदार्थों का प्रतिबिम्ब अवश्य ले सकता है। जैन दर्शन में नयों का जो वर्णन आता है, उनका सम्बन्ध किस ज्ञान से है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि नयों का सम्बन्ध श्रुतज्ञान से है। श्रुत के ही भेद, विकल्प या अंश नय हैं। श्रुतज्ञान अंशी है, और नय उसके अंश हैं। अतः एक प्रश्न यह भी उपस्थित होता है, कि श्रुतज्ञान तो प्रमाण है, किन्तु नय प्रमाण हैं अथवा अप्रमाण? इसके उत्तर में कहा गया है कि नय न एकान्त रूप से प्रमाण है और न एकान्त रूप से अप्रमाण ही है, अपितु प्रमाण का अंश है। जिस प्रकार समुद्र की तरंग को हम न समुद्र कह सकते हैं और न असमुद्र ही, हाँ समुद्र का अंश अवश्य कह सकते हैं। उसी प्रकार श्रुतज्ञान रूपी महासागर की तरंगें हैं-नय। इस दृष्टि से हम उन्हें न प्रमाण कह सकते हैं, न अप्रमाण ही। श्रुतज्ञान रूप प्रमाण सागर का अंश होने से उन्हें प्रमाणांश कह सकते हैं। यद्यपि नयों के असंख्यात प्रकार हैं, तथापि मुख्य रूप से नय के दो भेद हैं-निश्चय नय और व्यवहार नय। निश्चय नय आत्मतत्व के अखण्ड रूप का वर्णन करता है। देश और काल के भेद से अथवा गुण और पर्याय के भेद से वह आत्मा के अलग-अलग स्वरूप का वर्णन नहीं करता, बल्कि त्रिकाली जीवस्वरूप अखण्ड चैतन्यधारात्मक आत्मस्वरूप के परिबोध में ही उसकी सार्थकता है। निश्चय नय में आत्मा बद्ध नहीं मालूम पड़ता, बल्कि वह बन्धन-मुक्त सदा एक रस ज्ञायकस्वभावी मालूम पड़ता है। बद्ध दशा आत्मा का त्रिकाली स्वभाव नहीं है। निश्चयनय में आत्मा का त्रिकाली रूप ही झलकता है। उसमें आत्मा का देशकाल आदि अपेक्षाकृत रूप नहीं झलकता है। आत्मा की बद्ध अवस्था उसका त्रिकाली स्वरूप नहीं है, क्योंकि कर्म का क्षय कर देने पर उसकी सत्ता नहीं रहती है। इसी कारण से निश्चय नय में कर्मों का भान नहीं होता, बल्कि आत्मा के शुद्ध एवं निर्विकार स्वरूप का ही दर्शन होता है। आत्मा बन्धन मुक्त है और इसी स्वरूप का दर्शन निश्चयनय में होता है। आत्मा के बदलते हुए विभिन्न बन्धन-युक्त रूपों का दर्शन उसमें नहीं होता है। ६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001338
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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