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________________ ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय ६३ में भय क्यों न हुआ होगा? स्वयं खाल उतारने वाला जल्लाद भी इस भीषण कार्य से काँप उठा था। किन्तु स्कन्दक मुनि के मन में न किसी प्रकार का भय और न किसी प्रकार का कम्पन ही था। जरा विचार तो कीजिए, इस प्रकार की स्थिति में समभाव रखना कितना कठिन काम है ? पर स्कन्दक मुनि के लिए यह कठिन न था, क्योंकि उन्होंने अपने उपयोग को एवं चेतना की धारा को शरीर पर हटाकर आत्मा में केन्द्रित कर दिया था। और जब ज्ञान की धारा शरीर से हटकर आत्मा में समाहित हो जाती है, तब दुःख होते हुए भी उसे दुःख की अनुभूति नहीं होती। ___ मैं आपसे कह रहा था, कि इस प्रकार की दशा जीवन में तब आती है, जब कि ज्ञान-चेतना विशुद्ध, निर्मल और पवित्र हो जाती है। यदि कणाद के अनुसार ज्ञान के कारण ही दुःख होता है, तब स्कन्दक मुनि को भी वह होना चाहिए था और उस स्थिति में वे अपने शरीर की चमड़ी कैसे उतरवा सकते थे? याद रखिए, इस प्रकार की स्थिति में न कोई अपने शरीर से चमड़ी उतरवा सकता है, न कोई शूली पर चढ़ सकता है, न कोई फाँसी के तख्ते पर झूल सकता है और न कोई हँसते-हँसते जहर का प्याला ही पी सकता अतः इतिहास की उक्त जीवन गाथाओं से यह सिद्ध होता है, कि दुःख का कारण ज्ञान नहीं है, फलतः मुक्ति के लिए ज्ञान को समाप्त करने की आवश्यकता नहीं है। आवश्यकता इस बात की है कि शरीर और आत्मा में भेद-विज्ञान किया जाए।शरीर से उपयोग हटाकर, आत्मा में उस उपयोग को लगाना, साधक-जीवन की यह एक बहुत बड़ी और बहुत ऊँची कला है, जो ज्ञान और विवेक से ही प्राप्त की जा सकती है। जैन दर्शन के अनुसार ज्ञान दुःख का कारण नहीं है, किन्तु जब ज्ञान में राग-द्वेष का मिश्रण हो जाता है, तभी उसे दुःख का कारण कहा जाता है। ज्ञान से तो दुःख को दूर किया जाता है, ज्ञान और विवेक के कारण ही आत्मा में से विषमता दूर होकर समता उत्पन्न होती है। मैं आपसे आत्मा के ज्ञान-गुण की चर्चा कर रहा था। आध्यात्मिक ग्रन्थों के अध्ययन से यह भलीभाँति परिज्ञात होता है, कि आत्मा का ज्ञान-गुण आत्मा से भिन्न नहीं है। जो आत्मा है, वही ज्ञान है और जो ज्ञान है वही आत्मा है। निश्चय-दृष्टि से ज्ञान और आत्मा में द्वैतता है ही नहीं, किन्तु व्यवहार-भाषा में ही हम कहते हैं कि आत्मा में ज्ञान-गुण है अथवा ज्ञान आत्मा का गुण है। - जैन-दर्शन के अनुसार गुण और गुणी में न एकान्त भेद माना गया है और न एकान्त अभेद ही। जैन-दर्शन के अनुसार गुण और गुणी में कथंचित् भेद भी है और कथंचित् अभेद भी है। जब भेद दृष्टि से कथन किया जाता है, तब हम कहते हैं, कि ज्ञान आत्मा का गुण है किन्तु जब अभेद दृष्टि से विचार किया जाता है, तब हम कहते हैं कि आत्मा ज्ञानस्वरूप ही है। ज्ञान आत्मा से भिन्न नहीं है। जो ज्ञान है, वही आत्मा है और जो आत्मा है, वही ज्ञान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001338
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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