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________________ ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय ६१ बढ़ेगी। इसी तर्क के आधार पर वैशेषिक दर्शन के उपदेष्टा कणाद ने कहा है, कि संसार में दुःखों का मूल कारण ज्ञान ही है। अतः ज्ञान को समाप्त करना चाहिए, नष्ट कर देना चाहिए, क्योंकि जब तक ज्ञान रहेगा, तब तक जीवन में शान्ति सम्भव नहीं है। इतना ही नहीं, कणाद दर्शन तो इससे आगे यह भी कहता है कि जब तक आत्मा में ज्ञान है, तब तक मुक्ति भी सम्भव नहीं है। जैसे राग और द्वेष आदि विकारों को दूर करने का प्रयल किया जाता है, उसी प्रकार कणाद ज्ञान को भी आत्मा का विकार समझकर उसे दूर करने का प्रयत्न करता है। कणाद-दर्शन के अनुसार मुक्त-अवस्था में आत्मा में ज्ञान नहीं रहता। मैं आपसे वैशेषिक दर्शन की चर्चा कर रहा था और यह कह रहा था, कि वैशेषिक दर्शन में ज्ञान को दुःख का कारण माना गया है। वैशेषिक दर्शन में इतनी सच्चाई तो अवश्य है, कि वह दुःखों से छुटकारा प्राप्त करने के लिए उपदेश देता है, साथ ही वह आत्मा में ज्ञान की स्थिति को स्वीकार करता है, फिर भले ही वह संसारी अवस्था में क्यों न रहता हो। कणाद का कहना है कि ज्ञान आत्मा का एक विशिष्ट गुण है। वह जब कभी उत्पन्न होगा, तब आत्मा में ही होगा, आत्मा के अतिरिक्त ज्ञान अन्य किसी पदार्थ में उत्पन्न नहीं हो सकता। इतना होने पर भी इस दर्शन के सम्बन्ध में यह बात अवश्य विचारणीय रह जाती है कि यदि मुक्त अवस्था में आत्मा में ज्ञान नहीं रहता है, तो फिर ज्ञान-शून्य आत्मा, आत्मा कैसे रह सकता है? यदि आत्मा में से ज्ञान का अभाव स्वीकार कर लिया जाए, तब वह चेतन न रहकर जड़ बन जाएगा। दूसरी बात यह है कि जब ज्ञान को आत्मा का एक विशिष्ट गुण मान लिया, एक असाधारण गुण स्वीकार कर लिया, फिर आत्मा को ज्ञान-शून्य कैसे कहा जा सकता है? क्योंकि जो जिसका विशिष्ट अथवा असाधारण गुण होता है, वह अपने गुणी का परित्याग तीन काल में भी नहीं कर सकता। ___ अब रही ज्ञान से दुःख उत्पत्ति की बात, तर्क के प्रकाश में यह बात सत्य सिद्ध नहीं होती है। जहाँ-जहाँ ज्ञान है, वहाँ-वहाँ दुःख ही होता है, इस प्रकार की व्याप्ति बनाना कथमपि सम्भव नहीं है। भारतीय इतिहास के पृष्ठों पर उन विशिष्ट ज्ञानी साधकों का जीवन अंकित है, जिन्होंने अपने ज्ञान और विवेक के बल पर संसार की भयंकर से भयंकर पीड़ा को, यातना को तथा दुःख और क्लेश को भी सुखरूप समझा। निश्चय ही यदि उनके पास ज्ञान और विवेक का बल न होता, तो संसार के वे विशिष्ट साधक प्रसन्न भाव से न शूली पर चढ़ सकते थे, न फाँसी पर लटक सकते थे, और न हँसते-हँसते जहर का प्याला ही पी सकते थे। भारत में तथा भारत के बाहर कुछ ऐसे विलक्षण संत अथवा साधक हुए हैं, जिन्होंने शूली की नोंक पर चढ़कर भी आत्मा का संगीत सुनाया, जो फाँसी के तख्ते पर झूलकर भी आत्मा के आनन्द को भूल नहीं सके। और जिन्होंने विष-पान करते हुए भी, सुख और शान्ति का अनुभव किया। यह सब कुछ ज्ञान और विवेक का ही चमत्कार है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001338
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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