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________________ ६० अध्यात्म-प्रवचन जब आत्मा अपनी ज्ञान-शक्ति से अपने शुद्ध स्वरूप को समझ लेता है, तब वह संसार के पदार्थों में न राग करता है और न द्वेष करता है, किन्तु जब आत्मा अपरे स्वरूप को नहीं समझ पाता, तभी अज्ञानवश वह पदार्थों में राग-बुद्धि अथवा द्वेष-बुद्धि करता रहता है। सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि जब आत्मा ज्ञान-स्वरूप है और ज्ञान का कार्य राग-द्वेष करना नहीं है, तब आत्मा में राग-द्वेष कहाँ से और कैसे आ जाते हैं ? इस प्रश्न के समाधान में कहा गया है कि आत्मा में राग अथवा द्वेष की उत्पत्ति ज्ञान से नहीं होती, वह तो मोह के कारण ही होती है। पर-पदार्थों के साथ जो राग अथवा द्वेष का सम्बन्ध होता है, उसको करने वाला ज्ञान नहीं है, बल्कि चारित्रमोहनीयकर्म है। चारित्र गुण के विपरीत परिणाम को चारित्रमोह कहते हैं। जीव की क्रिया शक्ति की विकारी दशा चारित्र-मोह है और जीव की इसी शक्ति की अविकारी दशा चारित्र गुण है। इसी प्रकार आत्मा के दर्शन गुण के विकार को मिथ्यात्व कहा जाता है, जबकि आत्मा के दर्शनगुण के अविकार को सम्यक्त्व कहा जाता है। वस्तुतः चारित्रमोहनीय और दर्शनमोहनीय के कारण ही आत्मा में नाना प्रकार के विकारों की उत्पत्ति होती है, ज्ञान के कारण नहीं। ज्ञान तो आत्मा का एक विशिष्ट गुण है जिसके प्रकाश में आत्मा अपने स्वरूप का परिबोध करता है। ज्ञान अपने आप में विशुद्ध होता है। परन्तु चारित्रमोह तथा दर्शनमोह के कारण वह अशुद्ध बन जाता है, जिससे नवीन कर्मों का बन्ध होता है। वैशेषिक दर्शन के उपदेष्टा कणाद ने कहा है, कि संसार में सुख-दुःख और बन्धन आदि सभी का मूल कारण ज्ञान ही है। यही कारण है कि प्रभु से प्रार्थना करते हुए एक आचार्य ने यह कहा है कि भगवन्! इस ज्ञान से मेरा पिण्ड छुड़ाओ, क्योंकि जब तक ज्ञान विद्यमान है, तब तक शान्ति सम्भव नहीं है। अपने विचारों को पुष्ट करने के लिए उनका तर्क है, कि बालक को परिवार के किसी व्यक्ति के मरण का अथवा धनहानि आदि का दुःख नहीं होता है, क्योंकि उसमें दुःख की अनुभूति करने जैसे ज्ञान का अभाव रहता है। बालक को केवल देह का भान रहता है और इसीलिए भूख अथवा प्यास लगने पर वह रोता है। बाल्यकाल में दुःख शरीर तक ही सीमित रहता है। फिर आगे ज्यों-ज्यों वह बढ़ता है और उसके ज्ञान का विकास होता है, त्यों-त्यों उसके मन में माता-पिता आदि परिवार एवं परिजन के विविध विकल्प उत्पन्न होने लगते हैं, क्योंकि ज्ञान के विकास के साथ-साथ उसके मन में पदार्थों के प्रति अपनत्व का विकल्प भी पैदा हो जाता है। जैसे-जैसे ज्ञान विकसित होता और बढ़ता है, वैसे-वैसे दुःख और सुख के विकल्प भी विकसित होते रहते हैं और बढ़ते रहते हैं। विवाह करने से पूर्व उसके मन के विकल्प माता-पिता और बहिन-भाई तक ही सीमित थे, विवाह होने पर उन विकल्पों का विस्तार पली और उसके माता-पिता तथा आगे चलकर अपने पुत्र और पुत्री तक फैल जाते हैं। कणाद के अनुसार इस प्रकार ज्ञान के बढ़ने पर दुःख ही दुःख होता है। मनुष्य के मन में सुख-दुःखात्मक जितने अधिक विकल्प होंगे, उसके मन में उतनी ही अधिक अशान्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001338
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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