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श्रावक के चार शिक्षा-व्रत १२१ है-अपश्चिम-मारणान्तिक-सल्लेखना। अपश्चिम का अर्थ है-जिसके पश्चात् दूसरा न हो, अर्थात् सब से अन्तिम। मारणान्तिक का अर्थ है-मृत्यु के समय में होने वाली। सल्लेखना का अर्थ है-जिसके द्वारा कषाय कृश हों, उस प्रकार की आलोचना पूर्वक तपस्या विशेष। इस प्रकार अपश्चिम-मारणान्तिक-सल्लेखना का अर्थ होता है-मरणान्त के समय अपने भूतकालीन क्रिया-कलापों की सम्यक्तया आलोचना करके शरीर और कषाय को कृश करने के लिए की जाने वाली सबसे अन्तिम तपस्या। इसका अभिप्राय है, कि अन्तिम समय में भक्त पान का त्याग कर, पहले अन्न और बाद में जल का अथवा दोनों का एक साथ त्याग करके समाधि पूर्वक शान्त भाव से मृत्यु को प्राप्त करना। इस दृष्टि से संलेखना प्राणान्त अनशन है। इस प्रकार की मृत्यु को जैन आचार-शास्त्र में, समाधि-मरण एवं पण्डितमरण कहा गया है। इसको सामान्य भाषा में लोग संथारा भी कहते हैं। संथारा का अर्थ है-संस्तारक। संस्तारक का अर्थ है-बिछौना। संथारा में तीन बात होती हैं-घास का बिछौना, भक्त-पान का परित्याग और कषाय का त्याग। संथारा करने वाला व्यक्ति, घास का बिछोना बिछाकर, भक्त-पान का प्रत्याख्यान कर शान्त चित्त से बैठकर अथवा लेटकर तप और जप तथा स्वाध्याय और ध्यान करते हुए इस साधना में तल्लीन हो जाता है।
संथारा की साधना में किसी भी प्रकार की बाध्यता नहीं है। किसी के दबाव में नहीं की जाती। किसी प्रकार की विवशता भी इसमें नहीं है। यह तो अन्तर मन का उल्लास भाव एवं हर्ष भाव है। जब शरीर समस्त प्रकार की शक्ति खो बैठता है, बलहीन हो जाता है, जीवन अपने लिए ही नहीं, दूसरों के लिए भी भारभूत हो जाता है। रोग से शरीर आक्रान्त हो जाता है, मृत्यु-क्षण निकटतर आता प्रतीत हो, तब संथारा किया जा सकता है। ज्ञानीजनों का विचार है, कि जब शरीर किसी काम का न रहकर, स्व-पर के लिए केवल भारभूत हो जाता है, तब उससे विमुक्त हो जाना ही कल्याणकर मार्ग है। साधक स्वयं ही अपनी अन्तः स्फुरणा से अपने प्राणों का उत्सर्ग करने को तैयार हो जाता है। इसका नाम है-संथारा साधना। इस साधना में विवेक तथा जागरण की अत्यन्त आवश्यकता है। बिना विवेक के संथारा परिहास भी बन जाता है। इसमें द्रव्य शुद्धि, क्षेत्र शुद्धि, काल शुद्धि और भाव शुद्धि-इन चारों की आवश्यकता है। मोह ममता को जीतना, साधारण बात नहीं हो सकती। द्रव्य ममता, शरीर ममता और परिवार ममता को जीतने वाला वीर साधक संथारा कर सकता है। संथारा काल में उपसर्ग और परीषहों की तीव्र पीड़ा की अनुभूति होने पर भी अपने चित्त की शान्ति को न खोना, यह वीरों का परिपथ कहा है। शास्त्र में श्रावक और श्रमण-दोनों के लिए इस सल्लेखना व्रत का समान विधान किया गया है। संथारा तथा आत्म-हत्याः ___ संथारा और हत्या, दोनों एक कभी नहीं हो सकते। फिर भी कतिपय भारतीय विद्वानों ने, कतिपय पश्चिमी विद्वानों ने संथारा जैसी आध्यात्मिक साधना को हत्या, आत्म-हत्या कहा है ? इसके तीन कारण हैं
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