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________________ १२० अध्यात्म-प्रवचन अतिथि संविभाग के अतिचारः श्रावक धर्म की साधना करने वाले को अतिचारों का सेवन नहीं करना चाहिए। क्योंकि अतिचार से व्रत भंग हो जाता है। संविभाग व्रत के पाँच अतिचार इस प्रकार से कथन किए गए हैं, जैसे कि १. सचित्त निक्षेप २. सचित्त पिधान ४. पर - व्यपदेश ३. काल अतिक्रम ५. मात्सर्य (क) दान न करने की भावना से कपट पूर्वक, श्रमण को देने योग्य पदार्थ को सचित्त वनस्पति आदि पर रख देना - सचित्त निक्षेप है। (ख) भोजन आदि को सचित्त वस्तु से ढक देना - सचित्त पिधान है । पिधान का अर्थ है - ढक देना और निक्षेप का अर्थ है- रख देना। (ग) अतिथि को कुछ न देने की भावना से भिक्षा के समय से पूर्व अथवा पश्चात् प्रार्थना करना - काल अतिक्रम है। अतिक्रम का अर्थ है - लांघना । (घ) देना न पड़े इस भाव से अपनी वस्तु को दूसरे की कहना। दूसरे की वस्तु देकर अपनी बताना । व्यपदेश का अर्थ है- बहाना बनाना । (ङ) दान देने की भावना न होने पर भी दूसरे के दान गुण की प्रशंसा होती सुनकर या देखकर ईर्ष्या भाव से दान करना भी दोष है। निर्ग्रन्थ श्रमण को अतिथि क्यों कहा? क्योंकि वह अध्यात्म साधना के लिए गृह-वास त्याग चुका है । अनगार बन कर तप और ध्यान की साधना में ही अपना समस्त समय एवं शक्ति लगा देता है। वह भ्रमणशील है, पद-यात्री है और उसके आने-जाने का भी पता नहीं लगता। अतः वह सच्चा अतिथि होता है। अपने साधर्मिक को भी दान देना चाहिए। करुणा वृत्ति से दीन-हीन भिखारी को भी देना चाहिए। दान करने से त्याग का अभ्यास होता चला जाता है। श्रावक का सल्लेखना व्रत श्रावक का अन्तिम व्रत सल्लेखना या संलेखना होता है। द्वादश व्रतों के अन्त में, इसकी साधना की जाती है। द्वादश व्रतों से पहले सम्यक्त्व व्रत होता है, जहाँ से साधना प्रारम्भ की जाती है । अन्त में, संलेखना व्रत है, जहाँ पर साधना समाप्त हो जाती है। इस जीवन की अन्तिम साधना संलेखना है । सम्यक्त्व प्रारम्भ है, और संलेखना अन्त है। दोनों के मध्य में श्रावक के द्वादश व्रत हैं। यह ही श्रावक की साधना का क्रम रहा है। अतः श्रावक व्रतों में अन्तिम व्रत सल्लेखना, संलेखना या संथारा रहा है। जीवन के अन्त समय में, मरण से पूर्व जो तपोविशेष की आराधना की जाती है, वह संथारा के नाम से प्रसिद्ध है। शास्त्र की परिभाषा में उसका स्वरूप इस प्रकार से For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001338
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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