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________________ श्रावक के चार शिक्षा-व्रत ११९ हिंसा दोष की पूरी सम्भावना रहती है। छोटे-छोटे जीव-जन्तुओं का विघात हो सकता है। उससे व्रत दूषित होता है। अतः श्रावक को सावधान होना चाहिए। पोषध की परिभाषाः उपदेश प्रासाद ग्रन्थ में कहा गया है, कि जिससे धर्म की पुष्टि होती है, उसे पोषध कहा जाता है। वह पोषध व्रत चार प्रकार का होता है-आहार-पोषध, शरीर-सत्कार पोषध, ब्रह्मचर्य पोषध और अव्यापार पोषध। अथवा, यह भी कहा जा सकता है कि वह पोषध चार प्रकार से किया जा सकता है। इसकी साधना करने से बहुत कर्मों की निर्जरा होती है। श्रावक का अतिथि संविभाग व्रत श्रावक के चार शिक्षाव्रतों में से यह चतुर्थ शिक्षा-व्रत है। श्रावक के द्वादश व्रतों में से यह द्वादशम् व्रत माना गया है। इसको अन्तिम व्रत भी कहा जाता है। इसका पूरा नाम हैअतिथि संविभाग। संविभाग का अर्थ है-समान विभाजन। कम एवं अधिक विभाजन विषम विभाग होगा। विषम विभाग में राग और द्वेष होता है। संविभाग, समभाव से किया जाता है। संविभाग किसके लिए हो? वह अतिथि के लिए होता है। सामान्य भाषा में, अतिथि को अभ्यागत भी कहा जाता है। लेकिन इन दोनों शब्दों के अर्थ में और भाव में, अन्तर है। अभ्यागत वह होता है, जिसके आने की पूर्व सूचना होती है। अतिथि वह होता है. जिसके आने की तिथि अर्थात् समय निश्चित नहीं होता। इस प्रकार का अतिथि, श्रमण निर्ग्रन्थ ही हो सकता है। भोजन वेला में समागत श्रमण को श्रावक पूज्य एवं गुरु समझकर, अपने भोजन में से भक्त-पान देता है, उसे अतिथि संविभाग व्रत कहा गया है। अतिथि संविभाग की परिभाषाः ___ उपदेश प्रासाद ग्रन्थ में कहा गया है कि अन्न आदि सामग्री प्राप्त होने पर, जो व्यक्ति सदा श्रमणों को दान देकर, बाद में स्वयं भोजन करता है, इस प्रकार का श्रावक का जो नियम होता है, उसे अतिथि संविभाग व्रत कहा गया है। यह श्रावक का मुख्य कर्तव्य है। जो श्रावक अतिथि रूप श्रमण निर्ग्रन्थ को भोजन, वसति अर्थात् निवास स्थान, वस्त्र अर्थात् कंबल आदि और पात्र का नित्य प्रति दान करता है, उसका यह दान अतिथि संविभाग कहा जाता है। आचार्य हेमचन्द्र सूरि ने अपने योग-शास्त्र में कहा है कि देखो, विचार करो, गोपाल संगम ने अपनी प्रियतर वस्तु क्षीरान्न, दान में, तपस्वी श्रमण को भाव-पूर्वक प्रदान की, उसके फल स्वरूप उसको कितनी ऋद्धि वृद्धि और सिद्धि मिली। यह अतिथि संविभाग चतुर्थ शिक्षाव्रत का कितना महत्तर लाभ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001338
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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