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________________ १२२ अध्यात्म-प्रवचन (अ) जैन परम्परा के साहित्य का गहन अध्ययन न होने से। उस साहित्य के मूल-स्रोत का परिचय न होने से। मूल ग्रन्थों का अध्ययन न होने से। (ब) जैन परम्परा, जैन संस्कृति और उसके दीर्घकालीन इतिहास का परिज्ञान न कर सकने के कारण भी भ्रान्ति दूर नहीं की जा सकी। __ (स) जैन आचार की, परिभाषाओं की मीमांसा, समीक्षा और अन्य धर्म के आचार की तुलना न होने से संथारा के विरोध में प्रचार होता चला गया। ___ वस्तुतःसल्लेखना, संलेखना या कि संथारा आत्म-हत्या, आत्म-घात एवं आत्म-हनन नहीं हो सकता। दोनों में भारी अन्तर है। आत्म-घात के मूल में क्रोध, द्वेष, अपमान और निराशा-ये कषाय भाव विद्यमान होते हैं। क्रोध और निराशा में ही व्यक्ति आत्म-हत्या करता है। संलेखना के मूल में कषाय का सर्वथा अभाव होता है। आत्म-हत्या चित्त की अशान्ति तथा अप्रसन्नता का द्योतक है, जबकि संथारा चित्त की शान्ति और प्रसन्नता का प्रतीक होता है। आत्म-घात में मनुष्य का अधःपतन होता है, जबकि संथारा में मनुष्य के जीवन का उत्कर्ष होता है। आत्म-घात विकृत चित्त वृत्ति का कुपरिणाम है, जबकि संथारा संस्कृत चित्त वृत्ति का सुपरिणाम होता है। संलेखना पूर्वक होने वाली मृत्यु को निष्कषाय मरण, पण्डित मरण और समाधिमरण कहा जाता है, जबकि आत्म-हत्या सकषाय मरण, बाल मरण एवं अज्ञान मरण है। आत्म-घात आवेश के कारण होता है, जबकि संथारा विवेक तथा शान्ति से सोच-विचार कर किया जाता है। क्योंकि जैन धर्म की साधना में पर-हत्या की भाँति स्व-हत्या को भी भयंकर तथा घोर पाप माना गया है। संलेखना के अतिचारः सम्यक्त्व तथा द्वादश व्रतों की भाँति संलेखना व्रत के भी पाँच अतिचार माने जाते हैं। . श्रावक को इन दोषों से दूर रहना चाहिए। इनका सेवन एवं आचरण नहीं करना चाहिए। अतिचार इस प्रकार हैं १. इह लोक आशंसा प्रयोग २.पर लोक आशंसा प्रयोग ३.जीवित आशंसा प्रयोग ४. मरण आशंसा प्रयोग ५. काम भोग आशंसा प्रयोग (क) इह लोक का अर्थ है-मनुष्य लोक अर्थात् वर्तमान जीवन।आशंसा का अर्थ हैअभिलाषा। प्रयोग का अर्थ है-प्रवृत्ति। मनुष्य लोक विषयक अभिलाषा रूप प्रवृत्ति। संलेखना में यह इच्छा करना कि आगामी भव में इसी लोक में, कनक, कीर्ति और भोग प्राप्त हों, प्रथम अतिचार है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001338
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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