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________________ ११२ अध्यात्म-प्रवचन लिए बालों वाले प्राणियों का वध किया जाता है। आचार्यों ने केश से केशवती अर्थ भी किया है, जिसका अभिप्राय है, सुन्दरी नारियों का व्यापार, उन्हें खरीदकर बेच देना । . विष का अर्थ है - मादक वस्तुओं का व्यापार, अस्त्र-शस्त्र बनाकर बेचना - इन वाणिज्यों में घोर हिंसा होती है। अतः श्रावक के लिए निषिद्ध हैं। पाँच क्रियाएँ होती हैं, जैसे कि यन्त्र की क्रिया, निलछन की क्रिया, दाव अग्नि की क्रिया, सरोवर-तडाग शोषण की क्रिया और कुलटा पोषण की क्रिया । तेली की घानी, बैल को खस्सी करना, खेत में एवं जंगल में आग लगाना, झील एवं तालाब को सुखाना और कुलटा तथा वेश्याओं का पोषण करना। इन क्रियाओं में भी घोर पाप कर्म होता है। अनर्थ- दण्ड- विरमण व्रत व्यवसाय किसी भी प्रकार का हो। यदि उसमें दो बातें दृष्टिगोचर हों, तो वह श्रावक के लिए करने योग्य होता है। पहली बात है, कि उसमें स्थूल हिंसा अर्थात् सजीवों की हिंसा न होती हो। दूसरी बात है, कि उस में किसी व्यक्ति का अथवा समाज का शोषण न होता हो । अनर्थ दण्ड विरमण में इन तथ्यों का विशेष ध्यान रखना चाहिए। अपने तथा अपने परिवार के जीवन निर्वाह के निमित्त होने वाले अनिवार्य सावध अर्थात् हिंसा पूर्ण व्यापार के अतिरिक्त शेष सभी पापमय प्रवृत्तियों से निवृत्त हो जाना, अनर्थ-दण्ड विरमण व्रत है। इस तीसरे गुणव्रत से मुख्य रूप में अहिंसा तथा अपरिग्रह का परिपोषण होने से इसको गुणव्रत संज्ञा प्राप्त होती है। अनर्थ दण्ड अर्थात् निरर्थक पाप प्रवृत्ति चार प्रकार से होती है (क) अपध्यान आचरण से (ख) प्रमाद आचरण से (ग) हिंसा प्रदान से (घ) पापकर्म के उपदेश से १. अपध्यान का अर्थ है - अशुभ ध्यान । ध्यान चार प्रकार का है - आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल । प्रथम के दो अशुभ हैं, और अन्त के दोनों शुभ हैं। शुभ ध्यान कल्याणकारी होता है। २. प्रमाद आचरण का अर्थ है - आलस्य का सेवन । शुभ प्रवृत्ति में आलस्य रखना, अथवा शुभ प्रवृत्ति करना ही नहीं । साधक को सदा उद्यमशील रहना चाहिए । यही इसका अभिप्राय है। ३. हिंसा प्रदान का अर्थ है - किसी को हिंसक साधन देकर, हिंसक कृत्यों में सहायक होना । जैसे अस्त्र-शस्त्र का व्यापार करना । ४. पाप कर्म उपदेश का अर्थ है - जिस उपदेश से सुनने वाला पाप कर्म में प्रवृत्त हो, वैसा उपदेश देना । जैसे किसी व्यक्ति को शस्त्र देकर उसे हिंसा करने के कार्य में नियोजित करना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001338
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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