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________________ श्रावक के तीन गुण-व्रत १११ बिना पके कच्चे एवं हरे शाक तथा फल का सेवन करना। आधे पके और आधे कच्चे पदार्थों का सेवन करना,जो खाने में कम और फैंकने में अधिक, इस प्रकार के शाक एवं फल तथा पदार्थ का सेवन करना-तुच्छ औषधि-भक्षण अतिचार होता है। भूल-चूक से यदि अतिचारों का सेवन हो जाए, तो आलोचना, प्रतिक्रमण और प्रायश्चित्त करने से अतिचार दूर हो जाता है। पञ्चदश कर्मादानः मनुष्य को उपभोग और परिभोग वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए कर्म करना पड़ता है। उद्योग, व्यवसाय और व्यापार करना पड़ता ही है। जिस कर्म से, जिस व्यवसाय से और जिस व्यापार से महारम्भ होता हो, महाहिंसा होती हो,स्थूल पाप होता हो, श्रावक के लिए वे निषिद्ध कर्म हैं। क्योंकि उनसे अशुभ कर्मों का उपार्जन होता है। शास्त्रकारों ने उन्हें कर्मादान की संज्ञा प्रदान की है। उपासक दशांग में उनकी संख्या पञ्चदश है१. अंगार कर्म २. वन कर्म ३. शकट कर्म ४. भाट कर्म ५. स्फोटक कर्म ६. दन्तवाणिज्य ७. लाक्षा वाणिज्य ८. रस वाणिज्य ९. केश वाणिज्य १०. विष वाणिज्य ११. यन्त्र पीडन क्रिया १२. निलांछन क्रिया १३. दावाग्निदान क्रिया १४. सरोह्रद तडाग शोषण क्रिया १५. असती-जन पोषण क्रिया धर्म की उपासना करने वाले उपासक को इन निषिद्ध कामों का परित्याग करना, परम आवश्यक माना गया है। इन पञ्चदश कर्मादानों में पाँच तो आजीविका रूप कर्म हैं। जैसे कि लकड़ी एवं पत्थर जलाकर कोयला तैयार करना। आवा जलाकर ईंट तैयार करना। भट्टा जलाना अंगार कर्म है। हरे-भरे वृक्ष काटना एवं हरी घास काटना, वन कर्म होता है। गाड़ी, बहली एवं रथ बनाना, शकट कर्म है। वाहन एवं यान किराये पर देनाचलाना, भाट कर्म होता है। भूमि खुदवाना, सुरंग लगवाना, मकान बनवाना और कूप-नहर खुदवाना, स्फोटक कर्म होता है। कुछ आचार्य कृषि कराने को भी स्फोटक मानते हैं। इन कर्मों में पञ्च इन्द्रिय जीवों का वध होता है। अतः अहिंसा की आराधना करने वाले को इनका निषेध है। __पाँच वाणिज्य हैं, जैसे कि दाँत का वाणिज्य, लाख का वाणिज्य, रस का वाणिज्य, केश का वाणिज्य और विष का वाणिज्य। वाणिज्य का अर्थ है-व्यापार एवं व्यवसाय। दन्त के लिए गज को मारा जाता है। लाख तैयार करने के लिए वृक्षों को काटा जाता है। रस अर्थात् मदिरा के लिए हजारों-लाखों जीवों का वध होता है। केश अर्थात् बालों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001338
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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