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________________ ७८ चिंतन की मनोभूमि ही, शिव का स्वरूप बना हुआ है। यदि सात तत्त्वों में अथवा नव पदार्थों में जीव से पहले अजीव को रख दिया गया होता, तो यह इंसान के दिमाग का दिवालियापन ही होता। और तो क्या, मोक्ष की बात को भी पहले नहीं रखा, सबसे अन्त में रखा है। सबका राजा तो आत्मा ही है, उसी के लिए यह सब कुछ है, उसकी सत्ता से ही अजीव की सार्थकता है। पुण्य, पाप, आस्रव, बन्ध, संवर और निर्जरा स्वतन्त्र कहाँ हैं। जीव की ही अवस्था-विशेष हैं ये बस। मोक्ष भी जीव की ही अवस्था है और मोक्ष के हेतु संवर और निर्जरा भी जीव के ही स्वरूप हैं। बन्ध और मोक्ष जीव के अभाव में किसको प्राप्त होंगे? अतः संसार में जीव की ही प्रधानता है। संस्कृत भाषा में जिसे आत्मा कहते हैं, हिन्दी भाषा का 'आप' शब्द उसी का अपभ्रंश है। मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि आत्मा से ही प्राकृत का अप्पा और अप्पा से हिन्दी का 'आप' बना है। आप और आत्मा दोनों का अर्थ एक ही है। आत्मा की बात अपनी बात है और अपनी बात आत्मा की बात है। यही जीवन का मूलतत्त्व है, जिस पर जीवन की समस्त क्रियाएँ आधारित हैं। जब तक यह शरीर में विद्यमान रहती है, तभी तक शरीर क्रिया करता है। शुभ क्रिया अथवा अशुभ क्रिया का आधार जीव ही है। जीवन के अभाव में न शुभ क्रिया हो सकती है और न अशुभ क्रिया हो सकती है। मन, वचन और शरीर की जितनी भी क्रियाएँ होती हैं, उन सबका आधार जीव ही तो है। यदि आत्म-तत्त्व न हो, तो फिर इस विश्व में कोई भी व्यवस्था न रहे। विश्व की व्यवस्था का मुख्य आधार जीव ही है। शरीर में जब तक मन, वचन, शरीर, इन्द्रियाँ आदि सभी अपना-अपना कार्य करते-रहते हैं और इस तन से चेतन के निकलते ही, सबका काम एकसाथ और एकदम बन्द हो जाता है। आत्मा इस संसार में रानी मधुमक्खी है। जब तक वह इस देहरूप छत्ते पर बैठी होती है, तभी तक मन, वचन, शरीर, इन्द्रिय तथा पुण्य, पाप, शुभ एवं अशुभ आदि का व्यापार चलता रहता है। यह आत्मा रूपी रानी मधुमक्खी जब अपना छत्ता छोड़ देती है, तो इस जीवन की शेष समस्त क्रियाएँ अपने आप बन्द हो जाती हैं, उन्हें किसी बाह्य कारण से बन्द करने की आवश्यकता नहीं रहती। ___आत्मा न स्त्री है, न पुरुष और न नपुंसक है। आत्मा न बाल है, न तरुण है, न प्रौढ़ है, न वृद्ध है। ये सब अवस्थाएँ आत्मा की नहीं, शरीर की होती हैं। परन्तु इनके आधार पर शरीर को आत्मा समझना और आत्मा को शरीर समझना, एक भयंकर मिथ्यात्व है। जब तक यह मिथ्यात्व नहीं टूटेगा, तबतक आत्मा का उद्धार और कल्याण भी नहीं हो सकेगा। इस मिथ्यात्व को तोड़ने की शक्ति एकमात्र सम्यक् दर्शन में ही है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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