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________________ बन्धन और मोक्ष ७९ . जीवन के रहने पर ही सब कुछ रहता है, जीवन के न रहने पर तो कुछ भी नहीं रहता। इसी आधार पर आध्यात्मवादी दर्शन में जीव को अन्य सभी तत्त्वों का राजा कहा गया है। यदि इस जीव, चेतन और आत्मा का वास्तविक बोध हो जाता है, तो जीव से भिन्न अजीव को एवं जड़ को पहचानना आसान हो जाता है। अजीव के परिज्ञान के लिए भी, पहले जीव का परिबोध ही आवश्यक है। अपने को जानो, अपने को पहचानो, यही सबसे बड़ा सिद्धान्त है, यही सबसे बड़ा ज्ञान है और यही सबसे बड़ा सम्यक् दर्शन है। जीव की पहचान ही सबसे पहला तत्त्व है। जब जीव का ज्ञान हो जाता है, तब प्रश्न यह उठता है कि क्या इस संसार में जीव का प्रतिपक्षी भी कोई तत्त्व है ? इसके उत्तर में यह कह सकते हैं कि जीव का प्रतिपक्षी अजीव है। अत: अजीव के ज्ञान के लिए, जीव को ही आधार बनाना पड़ता है। इसलिए मैंने पूर्व में कहा था कि सप्ततत्त्वों में, षड् द्रव्यों में, और नव पदार्थों में सबसे मुख्य तत्त्व और सबसे मुख्य द्रव्य, सबसे प्रधान पदार्थ जीव ही है। जीव के ज्ञान के साथ अजीव का ज्ञान स्वत: ही हो जाता है। शास्त्रकारों ने जीव का प्रधान लक्षण-उपयोग बतलाया है और अजीव के लए कहा है कि जिसमें उपयोग न हो वह अजीव है। अजीव का शब्दार्थ ही है कि जो जीव न हो वह अजीव, अर्थात् अ + जीव। अतः अजीव से पहले जीव का ही प्रमुख स्थान है। जीव और अजीव के बाद आस्रव तत्व आता है। आस्रव क्या है ? जीव और अजीव का परस्पर विभावरूप परिणति में प्रवेश ही तो आस्रव है। दो विजातीय पृथग्भूत तत्त्वों के मिलन की क्रिया, विभाव परिणाम ही आस्रव है। जीव का विभाव रूप परिणाम ही आस्रव है। जीव की विभाव रूप परिणति और अजीव की विभाव रूप परिणति ही वस्तुत: आस्रव है। एक ओर आत्मा रागद्वेषरूप विभाव अवस्था में परिणत होता है, तो दूसरी ओर कर्माण पुद्गल भी कर्मरूप विभाव अवस्था में परिणति करता है। उक्त उभयमुखी विभाव के द्वारा जब जीव और अजीव का संयोग होता है, उस अवस्था को शास्त्रकारों ने आस्रव कहा है। इसीलिए जीव और अजीव के बाद आस्रव को रखा गया है। आस्रव के बाद बन्ध आता है। बन्ध का अर्थ है-कर्म पुद्गल रूप अजीव और जीव का, दूध और पानी के समान एकक्षेत्रावगाही हो जाना। बन्ध का अर्थ है-वह अवस्था जबकि दो विजातीय तत्त्व परस्पर मिलकर सम्बद्ध हो जाते हैं। इसी को संसार अवस्था कहा जाता है। पुण्य और पाप, जो कि शभ क्रिया एवं अशुभ क्रियाएँ हैं, उनका अन्तर्भाव आस्रव में और बन्ध में कर दिया जाता है। आस्रव दो प्रकार का होता है-शुभ और अशुभ। आस्रव के बाद बन्ध की प्रक्रिया होती है, अतः बन्ध भी दो प्रकार का होता है-शुभ बन्ध और अशुभ बन्ध। इस प्रकार शुभ और अशुभ रूप पुण्य और पाप दोनों ही आस्रव और बन्ध में अन्तर्भुक्त हैं। यहाँ तक मुख्यतः संसार-अवस्था का ही वर्णन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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