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________________ ८० चिंतन की मनोभूमि किया गया है। संसार-अवस्था का अर्थ बाहर के किसी भी वन, पर्वत, नदी और जड़ पदार्थ नहीं, बल्कि वास्तविक संसार तो कर्म परमाणुओं का अर्थात् कर्म दलिकों का आत्मा के साथ सम्बद्ध हो जाना ही है। जब तक जीव और पुद्गल की यह संयोग अवस्था रहेगी, तब तक संसार की स्थिति और सत्ता भी रहेगी। यह स्वर्ग और नरकों के खेल, यह पशु-पक्षी और मानव का जीवन, सब आस्रव और बन्ध पर ही आधारित हैं। शुभ और अशुभ अर्थात् पुण्य और पाप, यह सब भी संसार के ही खेल हैं। इनसे आत्मा का कोई हित नहीं होता, बल्कि अहित ही होता है। आध्यात्म-ज्ञानी की दृष्टि में शुभ भी बन्धन है; और अशुभ भी बन्धन है, पाप भी बन्धन है, और पुण्य भी बन्धन है; सुख भी बंधन है और दुःख भी बंधन है। . यहाँ प्रश्न यह होता है कि यदि यह सब कुछ संसार है, बंधन है, तो संसार का विपरीत भाव मोक्ष क्या वस्तु है ? इस समाधान में यह कहा जा सकता है कि आत्मा की विशुद्ध अवस्था ही मोक्ष है, जो शुभ और अशुभ दोनों से अतीत है। दुःख की व्याकुलता यदि संसार है, तो सुख की आसक्ति रूपी आकुलता भी संसार ही है। मोक्ष की स्थिति में न दुःख की व्याकुलता रहती है और न सुख की ही आकुलता रहती है। जब तक जीव इस भेद-विज्ञान को नहीं समझेगा, तब तक वह संसार से निकल कर मोक्ष के स्वरूप में रमण नहीं कर सकेगा। पुद्गल और जीव का संयोग यदि संसार है, तो पुद्गल और जीव का वियोग ही मोक्ष है। परन्तु इसके लिए यह आवश्यक है कि जो अजीव कर्म पुद्गल जीव के साथ सम्बद्ध होने वाला है या हो चुका है, उसे जीव से अलग करने का प्रयत्न किया जाए और इसी को मोक्ष की साधना कहते हैं। इस साधना का मुख्य केन्द्र-बिन्दु है-आत्मा और अनात्मा का भेदविज्ञान। जब तक जीव पृथक् है और अजीव पृथक् है इस भेद-विज्ञान का ज्ञान नहीं हो जाता है, तब तक मोक्ष की साधना सफल नहीं हो सकती। इस भेद-विज्ञान का ज्ञान तभी होगा, जबकि आत्मा को सम्यक दर्शन की उपलब्धि हो जायेगी। सम्यक दर्शन के अभाव में न मोक्ष की साधना ही की जा सकती है और न वह किसी भी प्रकार से फलवती ही हो सकती है। भेद-विज्ञान का मूल आधार सम्यक् दर्शन ही है। सम्यक दर्शन के अभाव में जीवन की एक भी क्रिया मोक्ष का अंग नहीं बन सकती, प्रत्युत उससे संसार की अभिवृद्धि ही होती है। मोक्ष की साधना के लिए . साधक को जो कुछ करना है, वह यह है कि वह शुभ और अशुभ दोनों विकल्पों से दूर हो जाए। न शुभ को अपने अन्दर आने दे और न अशुभ को ही अपने अन्दर झाँकने दे। जब तक अन्दर के शुभ एवं अशुभ के विकल्प एवं विकार दूर नहीं होंगे, तब तक अपनी मोक्ष की सिद्धि नहीं की जा सकेगी। आस्रव से बन्ध और बन्ध से फिर आस्रव, यह चक्र आज का नहीं, बल्कि अनादिकाल का है। परन्तु इससे विमुक्त होने के लिए, आत्म-ज्ञान और सत्ता का पूर्ण विश्वास जाग्रत होना ही चाहिए। शुभ और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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