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________________ बन्धन और मोक्ष ८१ अशुभ के विकल्प जब तक बने रहेंगे, तबतक संसार का अन्त नहीं हो सकता, भलें ही हम कितना ही प्रयत्न क्यों न कर लें। संसार के विपरीत मोक्ष-मार्ग की साधना करना ही आध्यात्मवाद है। मोक्ष का अर्थ है-आत्मा की वह विशुद्ध अवस्था, जिसमें आत्मा का किसी भी विजातीय तत्त्व के साथ संयोग नहीं रहता और समग्र विकल्प एवं विकारों का अभाव होकर, आत्मा स्व-स्वरूप में स्थिर हो जाती है। जिस प्रकार संसार के दो कारण हैं-आस्रव और बन्ध, उसी प्रकार मोक्ष के भी दो कारण हैं--संवर और निर्जरा । संवर क्या है ? प्रतिक्षण कर्म दलिकों का जो आत्मा में आगमन है, उसे रोक देना ही तो संवर है प्रतिक्षण आत्मा कषाय और योग के वशीभूत होकर, नवीन कर्मों का उपार्जन करती रहती है, उन नवीन कर्मो के आगमन को रोक देना ही, संवर कहा जाता है। प्रश्न यह है कि निर्जरा क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा जा सकता है, कि पूर्वबद्ध कर्मों का एकदेश से आत्मा से अलग हटते रहना ही निर्जरा है। इस प्रकार धीरे-धीरे जब पूर्वबद्ध कर्म आत्मा से अलग होता रहेगा, तब एकदिन ऐसा भी आ सकता है, जबकि आत्मा सर्वथा कर्म-विमुक्त बन जाए। वस्तुतः इसी को मोक्ष कहा जाता है। संवर और निर्जरा मोक्ष के हेतु हैं। क्योंकि ये दोनों आस्रव और बन्ध के विरोधी तत्त्व हैं। इस आधार पर कहा जा सकता है कि जब तक संवर और निर्जरा रूप धर्म की साधना नहीं की जाएगी, तब तक मुक्ति की उपलब्धि भी सम्भव नहीं है। मोक्ष प्राप्त करने के लिए संवर एवं निर्जरा की साधना आवश्यक है, इसके बिना आत्मा को स्वस्वरूप की उपलब्धि नहीं हो सकती। सप्त तत्त्वों में अथवा नव पदार्थों में जीव ही प्रधान है। जीव के अतिरिक्त अन्य जितने भी पदार्थ एवं तत्त्व हैं, वे सब किसी न किसी प्रकार जीव से ही सम्बन्धित हैं। जीव की सत्ता के कारण ही आस्रव और बन्ध की सत्ता रहती है और जीव के कारण ही संवर. एवं निर्जरा की सत्ता रहती है। मोक्ष भी क्या है, जीव की ही एक सर्वथा शुद्ध अवस्था-विशेष तो मोक्ष है। इस दृष्टि से विचार करने पर फलितार्थ यही निकलता है कि जीव की प्रधानता ही सर्वत्र लक्षित है। समग्र आध्यात्म-विद्या का आधार ही यह जीव है, अतः जीव के स्वरूप को समझने की ही सबसे बड़ी आवश्यकता है। जीव के स्वरूप का परिज्ञान हो जाने पर और यह निश्चय हो जाने पर, कि मैं पुद्गल से भिन्न चेतन तत्त्व हूँ, फिर आत्मा में किसी प्रकार का मिथ्यात्व और अज्ञान का अन्धकार शेष नहीं रह जाता। अज्ञान और मिथ्यात्व का अन्धकार तभी तक रहता है, जब तक 'पर' में स्व-बुद्धि रहती है और 'स्व' में पर-बुद्धि रहती है। स्व में पर-बुद्धि और पर में स्व-बुद्धि का रहना ही बन्धन है। स्व में स्व-बुद्धि का रहना ही वस्तुत: भेद-विज्ञान है। जब स्व में स्व-बुद्धि हो गई, तब पर में परबुद्धि तो अपने आप ही हो जाती है, उसके लिए किसी प्रकार के प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं रहती। प्रयत्न की आवश्यकता केवल स्व-स्वरूप को समझने के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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